विजेंद्र दिवाच
पत्थर पीस – पीसकर खुद पूरा सफेद हो जाता है,
बच्चों को भूत लगता है,
देखने वाले को तो हड्डियों का ढांचा नजर आता है,
कहीं चप्पल फैक्ट्री में दो सौ रुपए के लिए पूरे दिन फीते काटता है,
पूछो तो कहेगा,वह तो अपना जीवन काटता है,
किसी नीम के पेड़ के नीचे
दूसरों के चप्पल – जूते सिलते -सिलते खुद पूरा घिस गया,
जिम्मेदारियों और परिस्थितियों के बीच में
उसका पूरा जीवन पीस गया,
खानों से कोयला निकाल – निकालकर कर खून भी काला हो गया,
किसी को नहीं दिखा,
नस – नस में जो छाला हो गया,
बस्ती के किसी उजड़े कोने पर घर उसका बन गया,
नीची जात घोषित होकर, गालियों में हरामी साला हो गया,
ऊंची हैसियत बनाकर किसी को कुछ भी बोल दो?कुछ भी कर दो?
क्या आदमी का जमीर भी किसी युद्ध का भाला हो गया?
रास्ते बनाने के लिए तोड़ – तोड़कर पत्थर बिछाता है,
अपने दिल पर भी पत्थर रखकर,
बच्चे के लिए उसी जगह अपने गमछे से बिस्तर सजाता है,
रोते बच्चे को थपथपाने लग जाए दो पल,
मालिक आंखें निकालकर हड़काता है,
रास्ते तो बन जाते हैं,
लेकिन कहीं किसी का जमीर तो किसी के बच्चे खो जाते हैं,
पत्थरों के रास्तों पर चलने वाले भी,आखिर क्यों पत्थर बन जाते हैं?
लग गया किसी सेठ – बनिए की दुकान पर,
बोरे उतार – उतारकर उसका शरीर धनुष – समान हो गया,
सेठ के मकान पर एक और मकान बन गया,
अभी नहीं लगा मजदूर का तीर निशाने पर,
उसका का तो दिन, दो चाय और बीड़ी में ही गुजर गया।

विजेंद्र दिवाच
Writer, Social Thinker