भाग 1
तानाशाह स्तालिन -

Nishant Rana

1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद स्तालिन ने अपना ही इतिहास लिखना शुरू किया। इसकी शुरुआत स्तालिन ने की सेंसरशिप के साथ। प्रतिबंधों के मामले में सोवियत संघ में ऐसा शायद ही कोई क्षेत्र हो जो स्तालिन ने छोड़ा हो। संचार मीडिया, व्यक्तिगत आय, कीमतों में वृद्धि, खाने की कमी, बेरोजगारी, आपराधिक डाटा, बेघर लोग, भ्रष्टाचार, प्राकृतिक या मनुष्य प्रदत्त आपदा, हवाई दुर्घटना, जेल में कैदियों की स्थिति, दवाइयों की उपलब्धता की स्थिति, थियेटर आदि अनेकों चीजों पर जो भी सत्ता के काम काज की स्थति के बारे में अच्छा बुरा कुछ भी जानकारी जाहिर कर सके वह सब स्तालिन द्वारा प्रतिबंध के घेरे में ला दिया गया। पुस्तकालयों को तबाह किया गया, आर्टिस्टिक स्वच्छंदता खत्म कर दी गई। ऐसा कोई भी लेख या लेखनी का पात्र जो सत्ता को अपने लिए गलत लगा वह प्रतिबंधित किया गया। यहाँ तक कि शरलॉक होम्स जैसे पात्र को भी प्रतिबंधित किया गया। शायद इसलिए क्योंकि वह पात्र बहुत ज्यादा व्यक्तिवादी था, ऐसे पात्र जो उधम विकसित करने की कहानी कहते हो वह भी प्रतिबंधित कर दिए गए। स्तालिन को चाहिए था कि केवल ऐसे ही पात्रों को जगह दी जाए जो सत्ता अर्थात उसके लिए वफादारी वाले मूल्यों को बढ़ावा देते हो।
सोवियत संघ को कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से औधोगिक अर्थव्यवस्था की और ले जानें का काम लेनिन के समय से ही हिंसक तरीकों और जोर जबरदस्ती से शुरू हो चुका था। स्तालिन ने इसे और ज्यादा क्रूरता के साथ आगे बढ़ाया। कामगारों को उत्पादन के भारी भरकम टारगेट दिए जाते और जो कामगार उन टारगेट को पूरा करने में असफल रहते उन्हें गद्दार घोषित करके जेल में डाल दिया जाता या मार दिया जाता। इस सब से सोवियत संघ की अर्थवस्था तो सफल हुई लेकिन किस कीमत पर? भयंकर भुखमरी का दौर चला। लाखों लोग मारे गए लेकिन स्तालिन ने अपने गलतियों को स्वीकार करने के बजाय इस सब को राष्ट्र निर्माण में जरूरी आहुति मान कर यह सब जारी रखा।
1930 का दौर पश्चिमी देशों के लिए भी अस्थिरता और मंदी का दौर था। परेशानियों से जूझते लोग वैकल्पिक व्यवस्था की ओर देखते ही है और खासकर उस व्यवस्था में असल में क्या हो रहा है और उसके संभावित खतरों को छिपा लिया जाए तो लोगों को व्यवस्था बेहतर मालूम पड़ती ही है। रूस, चीन व कम्युनिस्ट शासन के प्रति रोमांस रखते लोग खूब पश्चिमी मीडिया को गरियाते है लेकिन यह न्यूयॉर्क टाइम्स में जर्नलिस्ट वाल्टर ड्यूरेंटि (Walter Duranty) ही था जिसने स्तालिन के प्रॉपगेंडा को विश्व में स्थापित किया। ड्यूरेंटि एक भ्रष्ट व्यक्ति था जिसे स्तालिन ने एक्सक्लूजिव इंटरव्यू के लिए बुलावा भेजा। यहाँ इन दोनों के बीच सफल डील हुई।
यह वह दौर था जब स्टालिन द्वारा सामूहिक खेती को जबरदस्ती लोगों पर थोपा जा रहा था। किसान मजदूरों को जबरदस्ती कैंप मे कैद रखा जाता और सामूहिक खेती के लिए लगवाया जाता। भुखमरी और मृत्यु का आगे बढ़ता हुआ यह एक और दौर था। ड्यूरेंटि ने उस समय सोवियत संघ के अनेकों दौरे किए और लगातार कई लेख लिखे जिनमें वहाँ के असल हालातों लोगों को भूख से मरते देखना, थोपी हुई व्यवस्था को छिपा कर स्तालिन के पक्ष में महानता स्थापित करते हुए ही लेख लिखे गए। यह प्रॉपगेंडा इतना सशक्त था कि ड्यूरेंटि को इसके लिए उस समय पुल्तीज़र अवॉर्ड भी मिला। हालांकि जब एक तरफा रिपोर्टिंग के इस मामले की हकीकत और करोड़ों लोगों की असहनीय यातनाओं और यूक्रेन में भुखमरी के कारण लाखों लोगों की मृत्यु की सच्चाई जब सामने आई तो न्यूयॉर्क टाइम्स और पुल्तीज़र अवॉर्ड देने वाली संस्था दोनों ने अपनी-अपनी सफाई पेश की जिसे उन दोनों की आधिकारिक वेबसाईट पर पढ़ा जा सकता है।
कहानी यहाँ पर ही खत्म नहीं होती है। स्तालिन का क्रूरता में साथ देने वाला अगला दोस्त था ट्रॉफीम लायसेंको (trofim lysenko) जो एक बायोलॉजिस्ट था जिसका मानना था कि मार्क्स की थ्योरी को अनाजों पर भी लागू किया जा सकता है। इन तथाकथित वैज्ञानिक के आते ही जेनेटिक्स की पुरानी थ्योरी को बैन कर दिया गया, लैब बंद कर दी गई। विरोध की कोई गुंजाइश का तो अब कोई मामला ही नहीं बचता है। इन वैज्ञानिक साहब का मानना था कि अगर अनाजों को बर्फ आदि मे भी रोपा जाए तो अनाज मौसम, भौतिक परिस्थियों के अनुरूप ही खुद को ढाल लेंगे और पैदावार देंगे। इस थ्योरी को माना गया और इसके हिसाब से भी काम लिया गया। होना वही था जो होना था – फसल की पैदावार नहीं हुई। यह सब और अधिक मृत्यु का कारण बना। चूंकि लाईसेंको स्तालिन का वफादार था तो वह स्तालिन के मुख्य विश्वासपात्रों में ही शामिल रहा।
जब लोग एक दूसरे पर विश्वास करना बंद कर देते है तो वह अपनी शक्ति इच्छानुसार राज्य को सौप देते है। स्टालिन का अगला लक्ष्य था कि लोगों का एक दूसरे पर से विश्वास खत्म हो। स्तालिन को अपनी ही पार्टी जिस भी व्यक्ति से खुद के लिए खतरा लगा उसे मरवा दिया गया। इसमें अधिकतर लोग ऐसे थे जो क्रांति के नाम पर शुरुआत में स्तालिन के साथ लड़े थे। ऐसा माना जाता है की करीब साढ़े सात लाख लोगों को तो केवल गद्दार चिन्हित करके मारा गया। स्तालिन का मानना था कि 100लोगों के मरने में यदि उनमें 5 गद्दार लोग भी मर जाते है तो यह एक बुरा अनुपात नहीं है। स्तालिन ने ऐसे मिथिकीय पात्रों की रचना करवाई और सच्ची घटनाओं के रूप में प्रचारित कराया जो राष्ट्र के प्रति वफादारी व्यक्त करने और फर्ज निभाने में अपने परिवार और सगे संबंधियों से भी लड़ गए और मारे गए। इस सब के प्रचार के लिए जो भी माध्यम उस दौर में सोचे जा सकते है सभी प्रयोग में लाए गए और घर-घर में जासूस एक दूसरे पर शक करते हुआ जीना जैसी परिस्थितियाँ तैयार कर दी गई।
स्तालिन विश्व इतिहास के सबसे क्रूरतम तनशाहों में तो गिना ही जा सकता है लेकिन सोशल इंजीनियरिंग और प्रोपेगेंडा मास्टर शायद ही ऐसा कोई और हो जिसने लाखों लोगों की मृत्यु तक को कुछ समय तक के लिए छिपा लिया जिसके फर्जी सोशलिस्ट स्टेट के नाम पर आज भी लोग ब्रेनवाश्ड है। चाहे वास्तव में रूस में कभी साम्यवाद रहा हो न रहा हो लेकिन बहुत लोग या तो अपने अति भोलेपन, अपने व्यवस्था जनित जीवन की परेशानियों से निकलने का बेहतर रास्ता सोचकर व जानकारियों के अभाव में गढ़े गए झूठ को ही वास्तविकता मानते है या फिर ऐसे लोग है जो लेनिन-स्तालिन के साम्यवादी स्टेट के रूप में गढ़ी गई धूर्तताओं, प्रोपेगेंडा को हिंसक मानसिकता के रूप में गहरे में अपने में जीते है और यह सब करने को ही साम्यवाद समझते है।
क्रमश:

 
Nishant Rana
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.