अखिलेश प्रधान
सिविल सेवा की तैयारी करने वाले अधिकतर युवाओं को तैयारी करने वाले दिनों से इस बात की समझ रहती है कि ठेठ राजा वाली अय्याशी अगर कहीं है तो सिर्फ यहीं है। बहाना चाहे कुछ भी कर लें, ढोंग दिखावा कितना भी कर लें कि समाज सुधार करेंगे आदि आदि लेकिन मूल में भोग वाली मानसिकता के पीछे का लोभ छिपा रहता है।
भारत में एक युवा के लिए नेता बनने में बहुत मुश्किलें हैं। सबसे बड़ी मुश्किल ये कि शुरूआत से ही लगातार जनता के बीच जाना है, उनसे संवाद स्थापित करना है और यह काम लगातार करना होता है, उसके बाद अगर कहीं पद मिल जाए फिर भी लगातार संवाद वाली चीज करनी ही पड़ती है, और फिर आपने लोगों के लिए कितना भी काम कर लिया, आपके गाली खाने की पूरी संभावना बनी रहती है। एक कलेक्टरगिरी का भूत पाले युवा को इन सब चीजों की समझ पहले से रहती है, उसे इस बात की समझ होती है कि असली राजा ये नहीं है, असली राजा वही है जिसे जनता से न्यूनतम संवाद करना पड़े उनके लिए काम के नाम‌ पर कुछ भी न किया जाए और एक बार किताब चाट के आजीवन भोग के अवसर उपलब्ध होते रहें और भरपूर पाॅवर रहे। यह सुविधा अगर न होती तो देश के युवाओं का इतना बड़ा हिस्सा समाज सुधार के ढोंग के नाम पर इस पद के पीछे नहीं लगा होता।
इसलिए आज भी किसी इलाके से कोई कलेक्टर बन जाता है तो उसे भगवान की तरह पूजा जाता है, क्योंकि उसी पद के सामने न्याय के लिए वर्षों तक हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाती आ रही जनता को भी पता होता है सबसे अधिक पाॅवर इसी के पास है।
कडिंशनिंग उसी दिन से शुरू हो जाती है, जब एक लड़का पहले दिन कोचिंग ज्वाइन करता है। ठीक कुछ ऐसी मेरी भी कहानी रही। इंजीनियरिंग करने के बाद भारत के लाखों छात्रों की तरह मुझे भी सरकारी नौकर बनने की लाइन में धकेल दिया गया, मैंने भी प्रतिकार न किया, प्रतिकार करने जैसी समझ विकसित ही नहीं हुई थी तो क्या करता, सो उसी को सही मानते हुए प्रियजनों के कहे अनुसार रेस में लग गया, और सिविल सेवा के लिए कोचिंग ज्वाइन कर लिया।
कोचिंग का पहला दिन था। पहले दिन से ही मेरी परीक्षा शुरू हो चुकी थी, विशिष्ट होने का बोध उसी दिन से हावी होने लगा था, ऐसा लगने लगा कि मैं अलग हूं, कुछ अलग करने जा रहा हूं, महान हूं आदि आदि। कूट-कूट कर महत्वाकांक्षा भर आई थी, पहले दिन से ही भीड़ से खुद को अलग करते हुए देखने लग गया था, कुछ कुछ ऐसा ही महसूस हुआ था। वैसा फिर दुबारा कभी जीवन में उतनी तीव्रता के साथ महसूस नहीं हुआ।
कुछ ऐसे ही सात दिन बीत गये, ऊपर लिखे गये भावों ने अपना विस्तार किया। इसी बीच एक दिन फिर कुछ कारणों से अपनी बाइक में घर जाना हुआ। अकेले जा रहा था, 3 घंटे का सफर था, सफर के दौरान जो जैसे भाव उस दिन मन में आए थे उसे जस का तस लिखने की एक अधकचरी कोशिश कर रहा हूं। हाईवे के दोनों ओर खेत, और मैं गाड़ी चलाते हुए तेजी से आगे बढ़ रहा हूं, उन खाली बंजर पड़े खेतों को देखकर ऐसा महसूस कर रहा हूं कि एक बार जिलाधीश बन जाऊं, एक झटके में इन खेतों को समतल कराकर बड़े खेत बना दूंगा, और कुछ उपयोग हेतु जमीन तैयार करूंगा, अन्य राज्यों की तरह बढ़िया बड़े बड़े समतल खेत होंगे, उन समतल बड़े बड़े जोत के लिए नहरों का जाल होगा। कटे हुए पेड़ देखे, पेड़ों की कमी देखी तो घने जंगल बना देने की चाह पैदा हुई। सूख चुके तालाब देखे, इन्हें देखकर खूब सारे बड़े-बड़े तालाब यूं एक झटके में बनवाने की ललक पैदा हो गई। लावारिस बच्चों को देख बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने हेतु अच्छे स्कूल और तमाम मूलभूत सुविधाएँ मुहैया करने के लिए काम करने की चाह पैदा हुई। उस दिन रास्ते में जहाँ जितनी मेरी नजर गई, जितने परिमाण में अव्यवस्था पीड़ा दिखी, उसे तुरंत एक झटके में बदल देने का पागलपन सवार हो गया था। इस पागलपन में उस दिन हिंसा का प्रवेश हुआ था या नहीं यह पुख्ता तौर पर आज दावा नहीं कर सकता, लेकिन ये मन के भीतर से प्रस्फुटित हुए भाव थे। एक सप्ताह तक कोचिंग जाने के बाद जो भीतर उथल पुथल हुई थी, उन सारे मनोभावों का यह सार था।
ध्यान रहे कि इंजीनियरिंग करने के ठीक बाद अचानक से इस क्षेत्र में कदम रखने वाले मुझ औसत छात्र को यह नहीं पता था कि भारत के संविधान में अनुच्छेदों की संख्या कितनी है, कितने भाग हैं, अनुसूचियाँ हैं आदि। मुझे इस बात की भी जानकारी नहीं थी कि अर्थव्यवस्था में किस क्षेत्र का योगदान कितना प्रतिशत पढ़ाया जाना है। मुझे इस बात की भी जानकारी नहीं थी कि एक जिले में एक जिलाधीश के पास कितनी शक्तियाँ होती है। फिर भी मुझमें एक अजीब किस्म का आत्मविश्वास या यूं कहें कि विशेषज्ञता का ऐसा बोध घर कर गया था जो सब कुछ कर लेने की क्षमता अर्जित कर चुका था, जिसे बार-बार यह महसूस होने लगा था कि वह सब कुछ कर सकता है, वह तालाब भी बनवा सकता है, भले उसे मिट्टी पानी की बेसिक समझ भी न हो, वह जंगल भी बना सकता है, भले खुद जीवन में कभी एक पेड़ तक लगाने का सलीका न आया हो। जिसने कभी खेतों में पाँव न रखें हो, वह जोत बनाने के सपने देखता है। शिक्षा का क ख ग पता न हो फिर भी शिक्षा पर काम करने की महत्वाकांक्षा सर चढ़ कर बोल रही थी। कुछ नहीं पता होकर भी विशेषज्ञ हो जाने का ऐसा बोध पहली बार हुआ था, जानकारी और अनुभव की घोर कमी होने के बावजूद सब कुछ कितना आसान लगने लगा था। दुनिया मुट्ठी में जकड़ लेने जैसी ताकत महसूस होने लगी थी, सरल शब्दों में कहें तो एक किसी इलाके के राजा हो जाने वाले भाव उमड़ने लगे थे। इसका अर्थ यह है कि बिना पढ़े, बिना जाने, बिना व्यवस्था का हिस्सा बने हुए भी कितनी आसानी से महसूस किया जा सकता है कि एक जिलाधीश के पास कितनी अधिक शक्तियाँ होती हैं।
ऊपर लिखे पैराग्राफ में जिस विशेषज्ञता का बोध मुझमें हावी हो चुका था, वह आने वाले कुछ समय तक बना रहा। इस बीच हर दिन द्वंद की स्थिति पैदा होती रही, जो संविधान, जो समाजशास्त्र, जो दर्शन मैं किताबों में पढ़ता, मैंने देखा कि वास्तविक जीवन में सब कुछ उसके उलट ही हो रहा है। सिविल सेवा की इस रेस में दौड़ते हुए मुझे हर दिन यह महसूस होता रहा कि ये किताबें, ये परिभाषाएँ, ये आंकड़े, ये तमाम आदर्शवादी बातें इनका धरातल में अस्तित्व ना के बराबर है, पालन ही नहीं होता है, बस एक लिखो-फेंको पेन की तरह इस किताब ज्ञान का इस्तेमाल किया जाता है, फिर नौकरी लगने के बाद इसे उसी तरह छोड़ दिया जाता है, जैसे साँप अपनी केंचुली से खुद को अलग करता है। एक दूसरी कड़वी हकीकत यह है कि जिन किताबों को पढ़कर आगे एक पद तक जाने का रास्ता तैयार होता है, वे किताबें उनमें लिखी चीजें एकदम कूड़ा होती हैं, जिनसे सीखने के स्तर पर कुछ भी नहीं मिलता है, उल्टे व्यक्ति की अपनी संभावनाओं का ह्रास जरूर होता है। और तो और इस पूरी चयन प्रक्रिया में इतने लूपहोल्स होते हैं कि आप परत दर परत बस रटते हुए, झूठ बोलते हुए, प्रपंच करते हुए शीर्ष तक जा सकते हैं, क्योंकि आपके वास्तविक चरित्र का, आपकी क्षमताओं का मूल्यांकन यह परीक्षा इंच मात्र भी नहीं करती है।
जैसे उदाहरण के लिए इस परीक्षा में पूछे जा रहे इंटरव्यू का ही एक प्रश्न लेते हैं। पूछा जाता है – आप जिलाधीश क्यों बनना चाहते हैं? भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसका सबसे स्पष्ट और सीधा जवाब क्या हो सकता है – “पद की हनक चाहिए, नाम और रूतबा चाहिए, जीवन भर के लिए सामाजिक आर्थिक सुरक्षा चाहिए।” लेकिन इंटरव्यू में जाने वाला क्या एक भी प्रतियोगी ऐसा जवाब देता है, वह नहीं देता है। वह उसी दिशा में चलता है, जिस गुलामी की दिशा में उसे पहले दिन से चलने कहा गया था जिस दिन से उसने कोचिंग ज्वाइन किया था या फिर अपनी तैयारी शुरू की थी। वह पूरी बेशर्मी के साथ झूठ बोलता है, और ऐसा करना वह कहाँ से सीखता है, वहीं से जिस दिन से वह इस परीक्षा की तैयारी कर रहा होता है, वह पहले दिन से यह दोगलापन अपने भीतर लेकर चल रहा होता है, इसलिए वह पूरी धूर्तता के साथ गोल मटोल जवाब देता है और उन सारे घुमावदार जवाबों का सार क्या होता है – ” देश की सेवा करनी है। ” देश सेवा के नाम पर इतना भयानक झूठ परोसा जाता है।
यह सिर्फ इंटरव्यू की बात हो रही है, चयन प्रक्रिया के जितने भी स्तर हैं चाहे वह वस्तुनिष्ठ परीक्षा हो, लिखित परीक्षा हो, उनमें पूछे जा रहे सवाल हों या फिर चयन होने के बाद चयनितों की जो ट्रेनिंग की भी पूरी प्रक्रिया है। इन सभी चरणों में झूठ, दोगलापन, हिंसा, सामंती मानसिकता कूट कूट कर भरी होती है। एक चयनित को इन सभी चीजों के बारे में बहुत अच्छे से पता होता है, वह आँख का अंधा बनने का ढोंग करता है, यह ढोंग वह सिर्फ अधिकारी बनने के बाद ही नहीं करता बल्कि ऐसा वह बहुत पहले ही करना शुरू कर चुका होता है, जिस दिन वह इस अंधी रेस में पहली बार शामिल होता है।
भारत में जो भी छात्र सिविल सेवा की तैयारी में जाते हैं, मुझे लगता है कि अगर उनमें थोड़ी भी भीतर की ईमानदारी होगी तो उन्हें शुरूआती दिनों में ही विशिष्ट होने का यह बोध होने लगेगा। जो ईमानदार नहीं होते, असल में उन्हें भी यह बोध होता है, लेकिन उनके साथ ये सहूलियत रहती है कि वे इस भाव के साथ सहज हो जाते हैं, उन्हें ये सामान्य लगता है, वे इस खोखली विशेषज्ञता के भीतर छुपी हिंसा, सामंती मानसिकता, राज करने के भाव को देखकर भी अनदेखा करते हैं, इसी को ही जीवन जीने का तरीका समझने लगते हैं और एक दिन इस सढ़ चुकी व्यवस्था की तीमारदारी में ही अपना जीवन होम कर देते हैं।
एक प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी से जुड़े छात्र के लिए एक ऐसी परीक्षा जिसमें इतनी भरपूर मात्रा में राजसी सुविधाएँ मिलती हों, ऐसी परीक्षा की तैयारी करना और उस तैयारी को एक झटके में छोड़ देना इतना आसान नहीं होता है, बिल्कुल धारा के विपरित चलने जैसा है, इसलिए छात्र लंबे समय तक समय ऊर्जा धन सब कुछ लुटाकर लगे रहते हैं, क्योंकि एक बार कुछ हासिल हो गया तो सब कुछ वसूल हो जाना है। और यह सब इसलिए किया जाता है क्योंकि आज भी इस देश में सरकारी पद ही विशेषज्ञता का मानक होती है, भले आप कितने भी अयोग्य हों, धूर्त हों, कितने भी नकारा हों, अगर आपके पास पद है, सब कुछ जायज है, आप समाज की नजर में सम्मानीय हैं, पूजनीय हैं।
आप अपने बचपन से लेकर आगे तक आपने जहाँ तक भी अपना जीवन जिया है, उसमें आप खुद ही मूल्यांकन करें कि एक जिले का जिलाधीश आपके जीवन में क्या महत्व रखता है? आप कितने बार अपने किसी काम के सिलसिले में एक जिले के जिलाधीश के पास जाते हैं? शायद एक बार भी नहीं। किसी कागज में दस्तखत कराने के अलावा या तीन तिकड़म वाले काम कराने के अलावा एक जिलाधीश का आपके जीवन में कोई खास महत्व नहीं होता है। झुण्ड में जाकर किसी सामाजिक विषय को लेकर शिकायत करना, ज्ञापन सौंपना, शादी का न्यौता देना, किसी समारोह में अतिथि बनाने के लिए निमंत्रण देने के अलावा एक जिलाधीश का आपके जीवन में और क्या महत्व है, आप खुद ही मूल्यांकन करें।
वास्तव में देखा जाए तो भारत जैसे देशों में जिलाधीश जैसे पदों की आवश्यकता ही नहीं है। जैसा ये ढांचा है, इसमें आप लोगों के लिए समाज के लिए इनकी जवाबदेही तय कर ही नहीं सकते। जो राजसी और सामंती तत्व इस पद के मूल में रचा बसा है, उसका समूल नाश किए बिना उसे जवाबदेह बनाया ही नहीं जा सकता है।‌ समूल नाश करने के बाद समाधान के रूप में यह हो कि अधिकारी के बदले सेवादार या सेवक कहा जाए, अलग-अलग विभागों के लिए विशेषज्ञता के आधार पर अलग-अलग सेवादार बनाएं जाए। जैसे जल विभाग में जल सेवक, विद्युत विभाग में विद्युत सेवक, स्वास्थ्य विभाग में स्वास्थ्य सेवक, शिक्षा विभाग में शिक्षा सेवक आदि। जब पदनुरूप सेवा करनी है तो सेवा का तत्व नाम से लेकर काम हर जगह परिलक्षित होना चाहिए, दिखना चाहिए, महसूस होना चाहिए।
अंत में चलते चलते एक सवाल के साथ अपनी बात को विराम देता हूं। जो छात्र प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं या लगभग सभी ऐसे होते हैं जिन्हें उनके परिवार या किसी परिजन के द्वारा इसके बारे में बताया जाता है, या फिर समाज के द्वारा सतत रूप से बनाए गये एक आभामंडल से वह प्रभावित होकर इस दिशा में कदम रखता है, वे छात्र एक बार ईमानदारी से खुद से सवाल करें कि वह जिस परिवार, जिस समाज में जन्म लेता है वह अमूमन उसे एक बड़ा अधिकारी या एक जिलाधीश ही क्यों बनाना चाहता है?

अखिलेश प्रधान   –
Writer, Thinker and First and Foremost a Wanderer