Sanjiv Kumar Sharma –

पार्किन्संस का नाम सुनते ही कई तरह की छवियां हमारी आँखों के सामने तैर जाती हैं। अधिकांश में एक असहाय वृद्धा या वृद्ध होता है जो चल नहीं पा रहा, खा नहीं पा रहा या मानसिक संतुलन खो जाने के कारण अजीब हरकतें कर रहा हैं। इन आधी-अधूरी छवियों के अलावा हमको आमतौर पर पार्किन्संस के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं होता। इस बीमारी के बारे में जानकारी का अभाव आम लोगों में तो है ही, कई बार चिकित्सा विषेशज्ञों में भी बहुआयामी एप्रोच और संवेदनशीलता का अभाव होने के कारण मरीज के जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना कर पाना उनके और उनके परिवारजनों के लिए बहुत ही कठिन हो जाता है। रही-सही कसर सपोर्ट सिस्टम का अभाव पूरा कर देता है; संस्थाएं सरकारी हों या गैर सरकारी, कहीं से भी प्रभावी सहयोग मिल पाना आसान नहीं होता।

आंकड़ों के मुताबिक 2016 में भारत में पार्किन्संस के लगभग 5,80,000 मरीज थे। उसके बाद से मरीजों की संख्या में काफी वृद्धि हो चुकी होगी और सही आंकड़े भी हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि अब भी बहुत सारे मरीज रिपोर्ट ही नहीं हो पाते। लेकिन एक बात तो साफ ही है कि भारत में इस बीमारी के मरीज बढ़ते जा रहे हैं। इसके बावजूद भारत पर आधारित शोध, आंकड़ों और जानकारियों का बहुत अभाव है।

पार्किन्संस क्या है?

पार्किन्संस मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र की एक बीमारी है जिसमें मस्तिष्क की बेसल गैन्ग्लिया में स्थित कोशिकाओं या न्यूरॉन में गड़बड़ी हो जाती है या वह नष्ट हो जाती हैं। यहाँ की कोशिकाएं डोपमीन नामक न्यूरोट्रांसमीटर बना कर श्रावित करती हैं। डोपमीन की कमी होने से शरीर को गति करने, मांसपेशियों के संचालन में कठिनाई होने लगती है और कई तरह के मानसिक और शारीरिक लक्षण पैदा होने लगते हैं। यह बीमारी समय के साथ बढ़ने वाली है, यानी जैसे-जैसे समय बीतता जाता है बीमारी के लक्षण और गंभीर होते जाते हैं।

पार्किन्संस के लक्षण 

पार्किन्संस के शुरुआती लक्षणों को पहचानना आसान नहीं है। उनको अक्सर बढ़ती उम्र, कमजोरी आदि के लक्षण मान लिया जाता है और काफी बढ़ जाने बाद ही बीमारी का पता चलता है। पार्किन्संस से मिलते जुलते लक्षणों का उल्लेख काफी प्राचीन ग्रंथों में भी है लेकिन इस बीमारी का नाम जेम्स पार्किन्संस के नाम पर रखा गया जिन्होंने 1817 में पहली बार इसे स्नायु तंत्र की एक बीमारी के रूप में प्रस्तुत किया।

प्रमुख तौर पर पार्किन्संस के लक्षण निम्नलिखित हैं :- 

कंपन – यह पार्किन्संस का सबसे जाना-पहचाना लक्षण है। यह किसी भी अंग में हो सकता है, यहाँ तक कि सिर्फ एक ऊँगली में भी हो सकता। लेकिन यह जरूरी नहीं कि यह सभी मरीजों हो। 

धीमा हो जाना – काम करने, चलने, कुर्सी से उठने या कोई और गतिविधि करने की गति में कमी आना या थकावट का अनुभव होना एक आम लक्षण है। कई बार यह शुरू में ही नोटिस होता और कई बार यह बाद में बढ़ता है।

मांसपेशियों की लचक में कमी – शरीर के किसी भी भाग की माँसपेशी में कड़ापन आ जाना, उसका स्वाभाविक लोच कम हो जाना। यह दर्द के साथ भी हो सकता और दर्द के बगैर भी। 

स्वचालित रूप से होने वाली गतिविधियों में कमी – शरीर की अनैच्छिक क्रियाओं में कमी आ जाती है, जैसे पलकें झपकाना, चलते हुए बाहें हिलना या अनायास मुस्कराना। 

मुद्रा और संतुलन में गड़बड़ी – शरीर की मुद्रा में गड़बड़ी आ जाती और शरीर आगे की ओर झुक सा जाता है। संतुलन बनाने में कठिनाई होती और व्यक्ति गिरने भी लगता। 

चेहरे के भावों में बदलाव – चेहरे के भावों में बदलाव आ सकता है, चेहरा भावहीन हो सकता।  

बोलने में बदलाव – बोलने का तरीका बदल सकता, बोलने में हिचकिचाहट हो सकती, सामान्य उतार-चढ़ाव की बजाय एक ही टोन में हो जाता, समझने में दिक्कत आ सकती या आवाज अजीब ढंग से मुलायम भी हो सकती। 

लिखने में बदलाव – लिखने में परेशानी हो सकती और राइटिंग में बदलाव आ सकता। 

मानसिक लक्षण – उपरोक्त लक्षणों के साथ कुछ मानसिक लक्षण भी हो सकते जैसे याददाश्त में कमी (डिमेंशिया), विभ्रम (हेल्युसिनेशन), अवसाद (डिप्रेशन), अनावश्यक भय, दुश्चिंता (एंग्जायटी), प्रेरणा का अभाव आदि। 

किसी मरीज में उपरोक्त सभी लक्षण हो सकते और किसी में कोई एक या एक से ज्यादा। जरूरी बात यह है कि यदि बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के किसी व्यक्ति के व्यवहार, चलने-फिरने, उठने-बैठने या काम करने के तरीके में कोई फर्क आए तो उसे तुरंत किसी न्यूरोलॉजिस्ट से संपर्क करके अपने रोग का निदान या डायग्नोसिस करवाना चाहिए। 

पार्किन्संस के प्रकार 

इडियोपेथिक पार्किन्संस – इसे ही आम तौर पर पार्किन्संस के नाम से जाना जाना जाता। यहाँ इडियोपेथिक का अर्थ है जिसका कारण अज्ञात हो।

वेसक्युलर पार्किन्संस – यह तब होता है जब मस्तिष्क होने वाले रक्त की आपूर्ति में कोई बाधा आती है। माइल्ड स्ट्रोक के शिकार लोगो में यह होने की संभावना हो जाती है। 

ड्रग इंड्यूस्ड पार्किन्संस – यह किसी दवा के साइड इफ़ेक्ट से होता है। स्किट्ज़ोफ्रेनिया तथा अन्य मानसिक रोगों के उपचार में प्रयोग होने वाली दवाओं से यह हो सकता है। लेकिन यह प्रायः अस्थायी होता है और दवा बंद करने या कुछ समय बाद ठीक हो जाता है।

जुवेनाइल पार्किन्संस– यह एक दुर्लभ प्रकार है जिसमें 21 वर्ष की उम्र से कम में पार्किन्संस हो जाता है। 

यंग ऑनसेट पार्किन्संस – यह भी कम ही पाया जाने वाला प्रकार है जिसमें 40 वर्ष से कम की उम्र में ही पार्किन्संस हो जाता है। 

(जुवेनाइल पार्किन्संस और यंग ऑनसेट पार्किन्संस में अक्सर जेनेटिक कारण ज्यादा होते हैं और परिवार में इसका इतिहास होता है) 

अन्य प्रकार के पार्किन्संस – कुछ ऐसी बीमारियां हैं जिनमें पार्किन्संस के लक्षण भी पैदा हो सकते हैं जैसे मल्टीपल सिस्टम एट्रोफी, प्रोग्रेसिव सुप्रान्युकलर पाल्सी या डिमेंशिया विद लूड बॉडी आदि। 

पार्किन्संस की स्टेज या अवस्था 

प्रथम अवस्था – यह बीमारी की पहली स्टेज होती है जिसमें व्यक्ति को बीमारी का पता चलता है। व्यक्ति घबरा जाता है, भविष्य की चिंता घेर लेती है और अक्सर उसे समझ नहीं आता कि वह क्या करे। 

द्वितीय अवस्था – यह बीमारी की दूसरी स्टेज होती है। इसमें सही चिकित्सा मिल जाने पर लक्षणों में आराम आने लगता है और समस्याएं इतनी भारी नहीं होती कि मरीज उनको संभाल न सके।  

तृतीय अवस्था – यह बीमारी की तीसरी स्टेज होती है। इसमें लक्षण थोड़े बढ़ने लगते हैं और अक्सर असंतुलन की समस्या इसी स्टेज में शुरू होती है।      

चतुर्थ अवस्था – यह बीमारी की चौथी स्टेज है। इसमें लक्षणों में वृद्धि होने लगती है और कई तरह की समस्याएं आने लगती है जैसे बोलने में कठिनाई, चलने में दिक्कत, कमजोरी, संतुलन बिगड़ जाना, विभ्रम, याददाश्त में गड़बड़ी आदि। लेकिन फिर भी व्यक्ति पूरी तरफ आश्रित नहीं होता।  

पंचम अवस्था – यह बीमारी की पांचवी और अंतिम स्टेज है। इस अवस्था में मरीज के लक्षण काफी बढ़ जाते हैं और बिना सहायक के वह अपना कोई भी काम नहीं कर पाता है। व्यक्ति पूरी तरह बिस्तर पर भी आ सकता है। जरूरी नहीं है कि हर मरीज इस अवस्था तक पहुंचे और कई बार मरीज पिछली तीन या चार अवस्थाओं में ही लम्बे समय तक रह सकता है।  

पार्किन्संस का कारण 

पार्किन्संस के कारणों के बारे में अभी तक कोई भी ठोस जानकारी नहीं है लेकिन निम्नलिखित कारकों का थोड़ा-बहुत प्रभाव माना जाता है :-

जीन्स – शोधकर्ताओं ने कुछ ऐसी जीन्स का पता लगाया है जो पार्किन्संस के लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन यह सिर्फ उन्हीं कुछ मामलों में होता जहाँ परिवार में पार्किन्संस का अच्छा-खासा इतिहास है। बाकी मामलों में जीन्स के माध्यम से कोई भी सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। 

वातावरण संबंधी कारक – कुछ टॉक्सिक तत्वों के संपर्क आने से बाद में पार्किन्संस का खतरा बढ़ जाता है। लेकिन इनका प्रभाव सीमित ही है।   

पार्किन्संस के रिस्क फैक्टर  

किसे पार्किन्संस होगा इसकी ठोस भविष्यवाणी करना असंभव है। फिर भी कुछ रिस्क फैक्टर हैं।

आयु – आयु बढ़ने के साथ पार्किन्संस होने का खतरा बढ़ता जाता है। आमतौर पर यह 60 साल की आयु के बाद ही होता है। 

लिंग – पुरुषों को पार्किन्संस होने का खतरा महिलाओं से ज्यादा होता है। 

आनुवंशिक – यदि आपके किसी नजदीकी परिवारजन को पार्किन्संस है तो आपको इसे होने का खतरा थोड़ा बढ़ जाता है। लेकिन यह खतरा सीमित ही होता है जब तक यह आपके परिवार या रिश्तेदारी में यह अनेक लोगों को न हो जाए।

टॉक्सिक तत्वों के साथ संपर्क – कुछ जहरीले तत्वों जैसे कीटनाशी, खरपतवारनाशी के लगातार संपर्क में आने से पार्किन्संस होने का खतरा थोड़ा बढ़ जाता है। लेकिन इसका प्रभाव भी सीमित ही है। 

पार्किन्संस से होने वाली जटिलताएं 

पार्किन्संस के कारण अनेक प्रकार की जटिलताएं पैदा होती हैं। 

खाने में समस्या – इस बीमारी में मरीज को चबाने और निगलने में कठिनाई आ सकती। मुँह में लार जमा हो सकती जो अनियंत्रित हो कर बाहर बहती रहती।

चलने और संतुलन की समस्या – चलने में कठिनाई और गिर जाना इस बीमारी की एक बड़ी समस्या है। मरीज कहीं भी गिर कर घायल हो सकता, या उसे गंभीर चोटें भी लग सकती। 

मानसिक समस्याएं – इस बीमारी में अनेक मानसिक समस्याएं भी पैदा हो जाती है जैसे याददाश्त कमजोर होना, तरह-तरह के विभ्रम (लोगों, घटनाओं आदि से संबंधित वहम) होना, भावनाओं में असंतुलन होना और ठीक से सोचने में कठिनाई होना आदि। 

पाचन की समस्याएं – इस बीमारी के कारण कब्ज, दस्त आदि समस्याएं होती रहती हैं। 

मूत्र संबंधी समस्याएं – मूत्र त्याग से संबंधित समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। मूत्र त्यागने में कठिनाई हो सकती या मूत्र को रोकना मुश्किल हो जाता है। 

कमजोरी – कुछ भी करने में कमजोरी का अनुभव होता है जो धीरे-धीरे बढ़ता जाता है।  

यौन कमजोरी – कई मरीजों में यौन इच्छा में कमी आ जाती है या उनको यौन संबंध बनाने में कठिनाई आने लगती है। 

रक्त चाप में गिरावट – अचानक ब्लड प्रेशर में कमी आने से कई तरह की समस्याएं पैदा हो जाती हैं। 

दर्द – मरीज को किसी खास हिस्से या पूरे शरीर में दर्द का एहसास हो सकता है।

पार्किन्संस का निदान या डायग्नोसिस

कोई भी ऐसा परीक्षण, टेस्ट या उपकरण नहीं है जिससे पार्किन्संस का पता लगाया जा सके। लक्षणों के आधार पर न्यूरोलॉजिस्ट इसका निर्धारण करता है। कई रोग इससे मिलते-जुलते लक्षणों के भी हो सकते जिनमें एक न्यूरोलॉजिस्ट ही भेद कर सकता है। इसलिए सबसे जरूरी है कि पार्किन्संस का कोई भी लक्षण या लक्षणों के समूह का हल्का सा भी अंदेशा होने पर तत्काल न्यूरोलॉजिस्ट से मिल कर रोग का निदान किया जाए। कभी-कभी न्यूरोलॉजिस्ट स्थिति को बेहतर ढंग से समझने के लिए कुछ ब्लड टेस्ट, एमआरआई आदि की सलाह दे सकते हैं । इसके अलावा पार्किन्संस के उपचार के लिए दी जाने वाली दवाओं से मरीज के लक्षणों में कमी आना भी डायग्नोसिस को सही साबित करता है।
 

पार्किन्संस का उपचार 

दुःख की बात यह है कि अभी तक पार्किन्संस को ठीक करने वाला कोई उपचार नहीं मिल पाया है। लेकिन दवाओं से लक्षणों में कमी आ जाती है और मरीज लम्बे समय तो अपने रोग को मैनेज कर सकता है। इसमें आमतौर पर न्यूरोलॉजिस्ट निम्मलिखित दवाओं का प्रयोग करते हैं:-
 
  • ऐसी दवाएं जो मस्तिष्क में डोपामिन का स्तर बढ़ा देती हैं। 
  • गति करने के अलावा जो समस्याएं होती हैं उनमें राहत देने के लिए दवाएं। 
  • मस्तिष्क के अन्य रसायनों को प्रभावित करके मरीज को राहत देने वाली करने वाली दवाएं।
  • मरीज के मानसिक लक्षणों में आराम देने वाली दवाएं। 
  • कुछ सप्लीमेंट भी साथ में दिए जाते हैं। 
इसके अलावा कई सहायक उपायों जैसे फिजियोथेरेपी, व्यायाम, ऑक्यूपेशनल थेरेपी, काउन्सलिंग, पौष्टिक भोजन आदि को भी साथ में अपनाया जाता है।  

जब किसी व्यक्ति को यह पता चलता है कि उसे पार्किन्संस हो गया है तो यह उसके और उसके घरवालों/ प्रियजनों के लिए एक आघात की तरह होता है। सबसे बड़ी बात जो मरीज को सताती है वह यह है कि अब वह कभी ठीक नहीं होगा और आगे दिनों-दिन उसकी हालत बिगड़ती जाएगी। असहाय हो जाने का अहसास उसे सताने लगता है। उसके घरवाले भी परेशान हो जाते हैं कि कैसे सब चीजों को मैनेज करेंगे। 

इसमें कोई शक नहीं है कि यह बीमारी काफी जटिल है, इसका कोई क्योर या पूरा इलाज नहीं है लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि इसे मैनेज नहीं किया जा सकता। इस बीमारी को ठीक से मैनेज करने और जहाँ तक संभव हो अपने जीवन की गुणवत्ता को बचाए रखने और बीमारी के लक्षणों को गंभीर होने से रोकने के लिए हमको एक प्रभावी, विस्तृत और समुचित योजना की जरूरत होती है। आज हम इसी के बारे में बात करेंगे। 

  1. सबसे जरूरी है सही विशेषज्ञों का चयन। सबसे पहले आपको एक ऐसा न्यूरोलॉजिस्ट चुनना चाहिए जिसके साथ आपको सहज महसूस होता हो और जिसे पार्किन्संस के इलाज और पुनर्वास (रिहैब्लिटेशन) का अनुभव हो। इसके साथ ही होलिस्टिक एप्रोच अपनाते हुए आपको दूसरी पैथियों जैसे प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद और योग और उसके साथ आवश्यकतानुसार फिजियोथेरेपी, ऑक्यूपेशन थेरेपी, स्पीच थेरेपी आदि के विशेषज्ञों के भी निरंतर संपर्क में रहना चाहिए। इस तरह इलाज की एक होलिस्टिक नीति बनाएं और उसका दृढ़ता से पालन करें। 
  2. मरीज और परिवार को आपस में ठीक से संवाद करके एक योजना बना लेनी चाहिए कि किस तरह इस समस्या से निबटना है। इस काम के लिए सभी का मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहना बहुत जरूरी इसलिए मरीज और उसके परिवारजनों को किसी प्रशिक्षित सलाहकार की सहायता लेते रहना भी इसमें काफी उपयोगी है। 
  3.  कई बार मरीज को पहले से मानसिक समस्याएं हो सकती हैं जो पार्किन्संस हो जाने पर बढ़ कर सामने आ जाती हैं। कुछ शोधों में यह भी देखा गया है कि अवसाद (डिप्रेशन) के मरीजों को आगे चल कर पार्किन्संस होने की संभावना थोड़ी बढ़ जाती है और कई बार अवसाद (डिप्रेशन) पार्किन्संस का शुरूआती लक्षण भी हो सकता है। इसलिए अच्छे मनोचिकित्सक से सलाह लेना आपकी समस्यायों को काफी कम कर सकता है।(https://www.medicalnewstoday.com/articles/319831#how-is-it-managed-and-treated)।
  4. पार्किन्संस के लक्षणों को गंभीर होते जाने की गति को धीमा करने में आहार का भी बड़ा महत्व है। इसलिए विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार भोजन चार्ट बनाएं और उसका ठीक से पालन करें। 
  5. यह एक ऐसी बीमारी जिससे मरीज अकेला नहीं जूझ सकता लेकिन यदि उसके परिवारजन और आत्मीयजन कमर कस लें तो चीजें बहुत आसान हो जाती हैं। इसके बावजूद भी यदि मरीज के लिए सहायक की जरूरत हो तो सामर्थ्य होने पर उसमें बिलकुल न हिचकिचाएं। किसी बाहरी सहायक का होना चीजों को बहुत आसान बना देता है और घर के लोग अपना जीवन भी बेहतर ढंग से जी सकते और वे मरीज के लिए और भी सकारात्मक वातावरण बना सकते हैं। 
  6. सोशल ग्रुप मरीज को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रेरित रखने में काफी मदद करते। इसलिए मरीज का सोशल ग्रुप बनाएं, इसके लिए किसी एनजीओ से भी संपर्क किया जा सकता है। 
  7. पार्किन्संस कोई घातक बीमारी नहीं है जो मरीज की जान ले और सही इलाज और समुचित जीवनशैली से बहुत से मरीज दूसरी या तीसरी स्टेज में रहते हुए भी जीवन बिता सकते हैं। यह बात मरीज को समझायी जानी चाहिए ताकि वह सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ खुद को बीमारी से निबटने के लिए तैयार करे। 
  8. संतुलन पार्किन्संस के मरीजों के लिए एक समस्या बन जाता है। इसलिए गिरने से बचाने के लिए कमरे, बाथरूम आदि में बनावट संबंधी बदलाव, खास उपकरणों का इस्तेमाल और सहायक का होना इसमें काफी उपयोगी होता है। 
  9. इस रोग की दवाएं कोई बहुत महंगी नहीं आती लेकिन फिर भी यदि आर्थिक संकट हो तो सरकारी हॉस्पिटल, एनजीओ या स्वयं सहायता समूह बना कर इलाज की व्यवस्था करें लेकिन मरीज को दवा नियमित रूप से दें। 
  10. लोगों से जुड़ें, जागररुकता फैलाएं, एक दूसरे की मदद करें, यदि आपने बीमारी से निबटते हुए कोई समझ विकसित की है तो दूसरे मरीजों तक भी उसे पहुंचाएं। 

आगे लेख में भोजन और जीवनशैली संबंधी कुछ ऐसे उपायों पर चर्चा करेंगे जो पार्किन्संस के मरीज के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। 

जब किसी को पता चलता है कि उसे पार्किन्संस हो गया है तो वह बदहवासी में हर तरह के उपायों की तरफ जाता है, हर प्रकार के विशेषज्ञों का दरवाजा खटखटाता है। उसकी परेशानी और भय का लोग फायदा भी उठाने लगते हैं, और इसी दौर में आते हैं भोजन विशेषज्ञ, डायटीशियन और खाने के जादूगर जो भोजन से हर समस्या चुटकियों में हल कर देते हैं। वह दावा करते हैं कि उनकी सलाह से भोजन करने, खास तरह के सुपरफूड लेने से सारी बीमारी गायब हो जाएंगी और वह मरीज मैराथन में भाग लेने लायक हो जाएगा। 

वास्तविकता यह है जब तक हमको पार्किन्संस का पता चलता है उसके लिए जिम्मेदार कोशिकाएं काफी हद तक नष्ट हो चुकी होती हैं या उनमें गड़बड़ी आ चुकी होती है। अभी तक हमारे पास कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे हम उनको वापिस ठीक कर सकें, चाहे हम कोई भी सुपरफूड खा लें या किसी भी तरफ का डाइट प्लान फॉलो कर लें। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि इस बीमारी में भोजन का कोई महत्व नहीं है। सही भोजन मरीज को कई तरह की समस्याओं से बचाता है और बीमारी के गंभीर होने की गति को धीमा करने में भी बाकी उपायों के साथ योगदान देता है।

पार्किन्संस के मरीज के खाने-पीने में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए :-

 

  • पार्किन्संस के मरीज का पाचन तंत्र कमजोर होने लगता है इसलिए न तो उसे एक बार में ढेर सारा भोजन करना चाहिए और न ही पूरे दिन खाते रहना चाहिए। खाने पीने का क्रम सुबह आठ बजे शुरू करके रात्रि आठ बजे तक खत्म कर लेना चाहिए। 
  • दिन की शुरुआत फलों से करना पाचन तंत्र को आराम देता है और शरीर को अपनी जरूरत के लिए विटामिन, मिनरल और फायटोकेमिकल्स मिल जाते हैं।  
  • फलों के बाद भूख लगने पर सलाद खाना काफी लाभप्रद होता है। इससे पाचन तंत्र को तो लाभ होता ही है पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व और फाइबर भी मिलते हैं। इनके साथ अंकुरित चीजें खाना भी अच्छा होता। यदि खाने में कठिनाई होती हो तो सलाद को बारीक टुकड़ों में काट सकते। कुछ खास मामलों में सब्जियों का सेमी-होल जूस भी दिया जा सकता है जब मरीज किसी भी रूप में सलाद नहीं खा पा रहा हो। 
  • उसके बाद दोपहर के भोजन में अलग-अलग अनाज होल रूप में (जैसे दलिया), दालों और सब्जी के साथ खिचड़ी और दलिये के रूप में खाना स्वादिष्ट भी होता, भूख भी लंबे समय तक शांत होती और शरीर की पूर्ति भी होती। 
  • रात्रि के भोजन में उबली सब्जियां में अलग-अलग तरह की चटनी मिला कर या सब्जियों का सूप आदि लेना ठीक रहता।  
  • डेरी उत्पाद से बचा जाए तो ठीक रहता क्योंकि कुछ शोधों में यह बात सामने आ रही है डेरी उत्पाद हमारे शरीर  के लिए ठीक नहीं होते और वे पार्किन्संस के मरीज की समस्या बढ़ा सकते। अभी इस बारे में कोई निश्चित राय तो नहीं बनी है लेकिन डेरी उत्पाद कम करने या छोड़ने से लाभ होता देखा गया है। (https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC5496517/)
  • विज़िबल फैट को कम या संभव हो तो बंद करके सेहतमंद इनविजिबल फैट को भोजन में शामिल करना अच्छे परिणाम देता है। इसके लिए उचित मात्रा में नारियल, बीजों और मेवे का सेवन लाभ पहुंचाता है। 
  • प्रोटीन भी पौधों से प्राप्त स्रोतों से ही लिया जाए तो शरीर में कोलेस्ट्रॉल भी नियंत्रण में रहता और अतिरिक्त फैट जाने से भी बचाव होता।
  • रिफाइन किए भोजन, चीनी, मैदा, पैकेट बंद और फैक्ट्री में बने भोजन से पूरी तरह परहेज करना ही ठीक है। 
  • पानी का उचित मात्रा में सेवन भी जरूरी है। 

जब यह पता लगता कि व्यक्ति को पार्किन्संस हो गया है तो उसे भय, निराशा, चिंता होना स्वाभाविक है। व्यक्ति भविष्य की आशंकाओं से डर कर परेशान हो जाता है। लेकिन मरीज और उसका परिवार भय और आशंकाओं से उबर कर जितनी जल्दी अपने जीवन में सकारात्मक सुधार ला कर इस बीमारी से निबटने की तैयारी करेंगे उतनी ही जल्दी उनका जीवन वापिस पटरी पर लौटेगा और भविष्य में होने वाली समस्याओं को नियंत्रित किया जा सकेगा। 

 

  • जीवन खत्म हो गया, अब क्या करेंगे की बजाय जीवन एक चुनौती है जम कर सामना करेंगे की ओर चलें।
  • पूरे चौबीस घंटे का शेड्यूल बनाएं और उसका सख्ती से पालन करें क्योंकि अब गलती करने की गुंजाइश नहीं होती है। यदि मरीज खुद उतना मोटिवेटेड नहीं है तो घर का कोई एक सदस्य आगे बढ़कर यह जिम्मेदारी ले और बाकी सदस्य उसको सहयोग करें। मरीज की जिम्मेदारी आपस में सोच-विचार करके किसी एक सदस्य को लेनी चाहिए और बाकी को उसकी मदद करनी चाहिए। कई बार आपस में कोऑर्डिनेशन न होने पर परिवार के सदस्य दिल से भला चाहने पर भी मरीज की उतनी मदद नहीं कर पाते जितनी उनकी क्षमता होती है। 
  • जहाँ तक संभव हो प्राकृतिक वातावरण में रहने की कोशिश करें। यदि आपका निवास प्राकृतिक वातावरण में न हो तो रोज पार्क जाएं, नैसर्गिक जगहों की यात्रा करें। 
  • रोजाना कम से कम आधा घंटे की धूप लें। गर्मी के मौसम में सुबह की आधा घंटे की धूप और जाड़ों में आराम से तीन-चार घंटे भी बैठ सकते (सिर और चेहरे को सीधी धूप से बचा कर)। कोशिश करें कि धूप त्वचा पर भी पड़े। 
  • समय-समय पर अपनी जांच कराते रहें ताकि कोई और बीमारी शरीर में जड़ न जमा पाए। यदि किसी भी बीमारी के लक्षण दिखें तो तुरंत बिना किसी ढिलाई के उसका उपचार/ समाधान करें। 
  • जहाँ तक संभव हो मरीज के इस्तेमाल की चीजों/ जगहों को फ्रेंडली बनाएं। 
  • यदि जरूरत हो और क्षमता हो तो योग्य सहायक रखने में न हिचकिचाएं। 
  • व्यायाम, योग के साथ बैडमिंटन, टेबल टेनिस, क्रिकेट जैसे खेल भी नियमित रूटीन में रखें। वह शरीर और दिमाग को एक साथ व्यायाम देते। क्रॉसवर्ड, पहेली, अंताक्षरी भी खूब खेलें। गाना, बजाना, नाचना, अभिनय करना भी रूचि के अनुसार करते रहें। हॉबी भी बनाएं, जैसे बागवानी, पेटिंग, लिखना आदि।
  • मरीज और परिवारजनों को यथासंभव सकारात्मक और हल्का-फुल्का वातावरण बनाए रखना चाहिए। 
  • मरीज से सख्ती से शेड्यूल का पालन करवाना अच्छी बात है लेकिन मरीज से नाराज होना, उस पर चिल्लाना और क्रोधित होना, उसका अपमान करना बहुत ही नकारात्मक प्रभाव डालता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि मरीज यह सब जानबूझकर नहीं कर रहा और इस तरह का व्यवहार उस पर और दुष्प्रभाव डालेगा। कई बार मरीज के साथ डील करना आसान नहीं होता, ऐसे में परिवार को लोगों को अपनी सेल्फ-काउन्सलिंग करनी चाहिए और जरूरत पड़े तो विशेषज्ञ की सहायता लेने से नहीं हिचकिचाएं। 

पार्किन्संस से बचाव के उपाय 

 

अभी तक कोई भी रिसर्च ऐसी नहीं हुई है जो हमको ठीक-ठीक यह बता दे कि क्या करने से हम पार्किन्संस से बचे रह सकते हैं। लेकिन कुछ सामान्य तरीके ऐसे हैं जिससे पार्किन्संस होने की संभावना को कुछ कम कर सकते हैं :-

  • सही जीवन शैली अपनाएँ, सेहतमंद भोजन, योग-व्यायाम करें और यथासंभव प्रकृति से सही रिश्ता रखें। 
  • मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखें और कोई समस्या होने पर तुरंत उसका निवारण/समाधान करें। 
  • एक ही पैटर्न पर जीना दिमाग को कमजोर करता है। अपने को चैलेंज करें, नयी चीजें सीखें, नयी जगहों पर जाएँ, नयी चीजें खाएं, जो मानसिक ढर्रे बन गए हैं उनको तोड़ें। 
  • अपनी रुचि के अनुसार ऐसे कामों का अभ्यास करें जिसमें शरीर और दिमाग दोनों को एक साथ मिल कर काम कर करते हैं; उनको अपने रूटीन में शामिल करें, जैसे शारीरिक खेल, नाचना, अभिनय करना और शारीरिक संतुलन बनाने वाले व्यायाम आदि।
  • बागवानी, संगीत, गायन, हस्तकला, पेंटिंग, केलीग्राफी आदि हॉबी मन को ठीक रखने और मस्तिष्क को सक्रिय रखने में बहुत मदद करती हैं।
  • मस्तिष्क को चैलेंज करने वाले व्यायाम भी उपयोगी सिद्ध होते हैं, जैसे आँखे बंद करके चलना, दोनों हाथों से काम करना और दोनों हाथों से लिखने की कोशिश करना, रात में सोने से पहले दिन भर की घटनाओं को याद करना और सभी इन्द्रियों को अलग-अलग टास्क देकर उनको पूरा करना।
(डिस्क्लेमर : यह लेख श्रंखला सामान्य जानकारी और जागरुकता के लिए लिखी जा रही है। किसी तरह की चिकित्सकीय सहायता के लिए कृपया विशेषज्ञ से संपर्क करें। यदि आप लेखक से इस संबंध में कुछ अतिरिक्त जानकारी चाहते हैं तो sanjivartz@gmail.com पर ईमेल भेज सकते हैं।)


An author, thinker, translator and a travel-enthusiastic visited almost all states of India in his wheelchair. He had polio paralysis of both the lower limbs at an early age and could not get into the formal system of education, ie schooling. On his own, he started with formal mainstream education at home, and appeared in few exams privately but soon realised about the inadequacy of traditional approach to education and started self-study in his way.

Sanjiv stayed in a room for more than 12 years and spent time in reading books, writing, translating and contemplating on vital issues of human life, society and religion. He has studied literature, philosophy, science, religion and psychology. He started writing during adolescent and continues to write till the date. He has written many articles, poems and stories which got published in various newspapers and magazines. With the area of social media, he also has turned into a prolific writer on the internet.