स्त्री पुरुष को अपने सम्बंध चुनने के अधिकार नहीं है बड़े गर्व और सामाजिक सहमति के साथ हत्याएं होती रही है।

बच्चों को जन्म से गुलाम माना जाता है। शिक्षा के नाम पर गुलामी करने की, भोग करने की, झूठ बोलने की; मौलिकता व रचनात्मकता नष्ट करने की ट्रेनिंग दी जाती है। इतने गहरे डर भर दिये जाते है कि भोग का एक कतरा भी कम हुआ या जीवन ढर्रे से जरा भी इधर उधर हुआ तो सांसे भारी हो जाती है।

स्वभाविक चैतन्य विकास को लगातार इतना दमित कर दिया जाता है कि मनुष्य के अंदर कुछ सम्भावना भी है में वह फ़र्शटेशन निकालता हुआ हिंसात्मक मशीन बन कर केवल रह जाता है।

जाति के नाम पर करोड़ो लोगों का दमन लगातर किया जाता रहा, जातीय नफ़रत इतनी गहरी बसी हुई है कि जिनसे नफरत करते है उनका जरा सर उठाना , जरा अधिकार मिल जाना अपने अस्तित्व पर संकट लगने लगता है।

स्त्रियों के लिए यह समाज किस दिन लोकतांत्रिक रहा है। विधवाओं की स्थिति आज भी इन देश मे  दयनीय है। अकेले स्त्री माता बन जाए तो उससे बड़ा तो कोई कलंक समाज पर न होगा। संपत्तियों में अधिकार आज तक न दिए।
सेक्स, शादी, पति के नामपर महिलाओं को लगातार गुलामी के लिए कंडीशन किया गया। पिता या पति की संपत्ति से अलग नहीं देखी गई।

हमारे परिवार सामंती, बाजारू मानसिकता को जीते है उसका पोषण करते है। लोकतंत्र को संवैधानिक कायदा समझने के बजाय लोकतंत्र को हमें अपने रिश्तों, सम्बन्धों में उतारना पड़ता है, यथार्थ में जीना पड़ता है।
 हम अपने पहले कदम पर ही अलोकतांत्रिक है, असंवेदनशील है, कुंठित मानसिकताओं को जीते है।


मुझे तो समझ ही नहीं आता ये देश लोकतांत्रिक है किस के लिए।

यदि यह देश लोकतांत्रिक मूल्यों से ही बना होता तो क्या जीव जंगल, जमीन, पानी, नदियों की यह भयावह स्थिति होती?

जीवन जीने के लिए हमें कोई पट्टी पकड़ा दी गई है उस पर सौटे लगते चलने को हम लोकतंत्र बोलते है।  कभी कभी चार सौटा कम ज्यादा हो जाता है  तो कोई जय हिंद बोलता है कोई लोकतंत्र ख़तरे में है बोल देता है। इसी पट्टी पर सैडेस्टिक आनंद को भी थोड़ा जी लेते है। जब तक अपने न पड़ के दूसरी लाइन वालों के पड़ रहा होता है उसमें भी खुश होकर नाच गान कर लिया जाता है।

जंजीरो में बंधे पशुओं को भी पेट भरने की आजादी मिली होती है, आपस में सींग भी लड़ाते रहते है। जो ज्यादा फायदेमंद होते है उनकी टहल थोड़ी बस अच्छी हो जाती है। अब इसे लोकतांत्रिक स्वतंत्रता कह कर खुश होना हो तो हो सकते है।

जो चीज इस देश में किसी भी कदम पर है ही नहीं उस पर किस बात का खतरा।


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.