भाग - 2
Nishant Rana
शुरुआत भारतीय समाज को साथ लेकर कुछ बातों की पड़ताल करते है –
भारत का ग्रामीण समाज जहां विकास धीमी गति से ही पहुंचा। इस लेख में हम विकास की अच्छाइयों या बुराइयों की बात नहीं कर रहे है इस सब पर पहले भी बात करते रहे है। अभी बातचीत का केंद्र इस पर है की जिन बातों को विकास समझा गया उस सब का हम सब की मानसिकता पर क्या फर्क पड़ा। शायद ही कोई माँ बाप होगा जिसने अपने बच्चों को स्कूल जानें से रोका हो या घर पर ही पढ़ाई की व्यवस्था न कराई हो। कोई ही माँ बाप होंगे जिन्होंने अपने बच्चों की नौकरियों के सपने नहीं देखे। कोई ही ऐसे माँ बाप होंगे जिन्होंने नहीं चाहा होगा कि उनका बच्चा गाँव से निकल कर शहर में बसे। यदि माँ बाप सम्पन्न नहीं है बहुत दूर का नहीं सोच सकते तो अपने बच्चों को भी अपने साथ कमाने के लिए मजदूरी पर लगा कर ही इस ओर बढ़ने का प्रयास किया। इस सब के क्या कारण थे? जीवन में बेहतर सुख सुविधाएं हो बेहतर संसाधन हो। ऐसा घर जो लंबा चले और टिकाऊ हो। वाहन, बेहतर कपड़े, जूते, यंत्र सयन्त्र आदि सब जरूरत से बढ़ कर ही हो। किस्से कहानियों में वह अपने जीवन के पुराने स्वरूप को चाहे कितने भी खुशनुमा तौर पर याद करता हो लेकिन उसकी जीवन यात्रा का मुख्य केंद्र जो उसे प्रेरित कर रहा था वह था जीवन स्तर में सुधार। जिसकी जब जैसे औकात पड़ी उसने अपने आपको और अपने बच्चों को पूरी ताकत के साथ इसी दिशा में ऊंचे से ऊंचा सैटल करना चाहा। जमीने बेच बेच कर बच्चे पढ़ने के लिए शहरों, टेक्निकल कोर्स, विदेशों तक में पढ़ने के लिए भेजे गए। इस सब में बाजार का कितना हाथ रहा या आदमी की बाजारू मानसिकता का मैं इसमें नहीं पड़ूँगा वरना लेख में जो बाते करना चाहता हूँ वह फिर किसी और ही लेख में पहुंची पाई जाएंगी।
बस्तर का आदिवासी समाज और भारतीय ग्रामीण समाज में तुलना –
बस्तर का आदिवासी समाज और भारतीय ग्रामीण समाज दोनों के एक साथ देखा जाए तो पाएंगे दोनों समाज में अंतर खेती न करने और खेती करने का रहा। ग्रामीण समाज बाकी दुनिया से किसी न किसी तरह जुड़ा ही था, दुनिया या आसपास के उतार चढ़ावों के परिवर्तन से समाज प्रभावित होता रहा लेकिन आदिवासी समाज का बाकी दुनिया से जुड़ाव आजादी के दस साल बाद तक भी लगभग न के बराबर रहा।
दूसरा मुख्य अंतर संस्कृति का। आदिवासी समाज की अपनी संस्कृति रही। भारत का ग्रामीण समाज जाति व्यवस्था पर चला। जातिय श्रेष्ठता और सेक्स कुंठा का सीधा सीधा संबंध रहा है। जितनी ज्यादा जातीय श्रेष्ठता उतनी ही बीमार सेक्सुअल संबंधों को लेकर मानसिकता। जबकि आदिवासी समाज में स्त्री पुरुष दोनों में सेक्स को लेकर स्वच्छंदता। यहाँ इस बात का जिक्र इसलिए किया गया है क्योंकि जब भी एनजीओ चलाने वाले दुकनदारों के द्वारा इस विषय को बीच में लाया जाता है। हम आदिवासी समाज को भी अपनी ही सामाजिक ट्रैनिंग के अनुसार देखते है और यौन शुचिता आदि के व्यवहार की अपनी मानसिकता से पक्ष तय करते है।
आदिवासी समाज के जंगल जमीन पर सरकारों के कब्जे को लेकर गढ़े गए नैरिटिव की पड़ताल –
यह कितने कमाल की बात है कि अंग्रेजों के जानें के बाद भारत में जो सरकार बनी वह कई रजवाड़ों रियासतों को जिस भी तरीके से बन पड़ा भारत में एकीकृत कर चुकी, यहाँ की सेना कितने ही युद्ध लड़ चुकी, हथियारों की दौड़ में आधुनिकता के साथ तालमेल करती रही यही सरकार आदिवासियों के जंगलों पर कब्जा करना चाहती थी वो भी तब जब संचार के माध्यम नहीं होते थे इतने दूर दराज वाले इलाकों में किस तरह के एक्शन लिए जा रहे इसकी कोई खोज खबर किसी को नहीं लगनी थी। आदिवासी लोग जिनके पास एक सशक्त सेना को रोकने के खिलाफ लगभग ज़ीरो डिफेंस है वह सरकार को ऐसा करने से रोक देते है। और वह लड़ाई आजतक चली आ रही है।
“एनजीओ वाले दुकानदारों की इस कहानी को थोड़ा और सुनते है कि सरकार आदिवासी इलाकों में जमीन पर कब्जा करने गई और आदिवासियों ने सरकार के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी। और लड़ाई भी ऐसी वैसी नहीं केवल विरोध वाली बल्कि भरपूर राजनैतिक समझ वाली क्रांति।”
जब वह ऐसा कहते है तब इनकी इस बात में क्या-क्या निहित है एक बार उसकी भी जांच पड़ताल कर लेते है।
ग्रामीण समाज में आज तक शिक्षा ठीक ढंग से नहीं पहुँच पाई लेकिन आदिवासी समाज दूर दराज के जंगलों में मुख्य धारा के समाज से कटा हुआ पहले से ही मार्क्स हेगल जिनके बारे में इस लेख को ही पढ़ पाने वाले ही कितने लोग नहीं जानते होंगे इनको आदिवासी समाज के लोग पढ़ लिख कर बैठे थे, क्रांति की तैयारियां कर रहे थे, मॉडर्न टेक्नोलॉजी वाले हथियार प्रयोग कर रहे थे।
मतलब ऐसा समाज जो उस समय खेती भी नहीं कर रहा था, जंगली जीवन पर ही निर्भर था। सरकार के जमीन कबजाने की नियत से वहाँ पहुँचने के कारण वहाँ रातों रात ज्ञान की बारिश हुई और आदिवासी अपने सब तरह के अधिकारों से भी परिचित हो गया और उसने यह भी तय कर लिया अब उसे अपनी संस्कृति, सामाजिक नियम छोड़कर माओवादी पॉलिटिकल सिस्टम को फॉलो करेगा।
बहुत कम मात्रा के कॉमन सेंस ही बहुत साफ हो जाता है कि माओवादी लोग बस्तर में शासन प्रशासन के पहुचने से पहले पहुंचे। यह अलग प्रश्न और सोचने वाली बात है कि सरकार के सहयोग या उपेक्षा के बगैर माओवादी कैसे फलते-फूलते रहे?
हाँ जो जरूरी और मुख्य तथ्य है वह यह कि इन्हीं के पहुँचने के बाद वहाँ का आदिवासी समाज मुद्रा, बाजार आदि के संपर्क में आया।
इन्हीं लोगों के खिलाफ सबसे पहले मजदूरी बढ़ाए जानें को लेकर, इनकी बाते न मानने को लेकर आदिवासियों ने विद्रोह शुरू किया।
लेकिन माओवादियों ने वहाँ क्या किया? आदिवासियों को डराया धमकाया मारा गया। माओवादी ट्रेनिंग के कैंप स्थापित किए गए। ऐसे ऐसे नियम बनाए गए जिनके तहत एक बच्चे को इनके कैंप में भर्ती करना ही होगा, छोटी बच्चियों को भी कैंप में डाला गया। अपने हिसाब से अनाप सनाप ट्रेनिंग दी गई,
शारीरिक मानसिक शोषण के लिए मानसिक रूप से कन्डीशंड किया गया। लड़कियों को यौन शोषण के लिए कन्डीशंड किया गया। फर्जी कहानियाँ, नेरेटिव मरने मारने के लिए बचपन से ही दिमाग में भरे गए।
माओवादियों के लगातार शोषण, आदिवासियों द्वारा माओवादियों का विरोध किया जाना, माओवादियों द्वारा सेना, पुलिस पर हिंसक अटैक आदि ही कारण रहे जिन वजहों से सरकार ने अपनी गतिविधियां आदिवासी इलाकों में मुख्य रूप से बढ़ाई।
आदिवासी समाज की विकास को लेकर व मुख्यधारा के समाज के साथ चलने की मानसिकता –
इस बारे में तो कोई दो राय वाली बात ही नहीं है कि चाहे व्यक्ति ग्रामीण हो चाहे शहरी उसे मुद्रा, बाजार, जीवन स्तर को बढ़ते क्रम में तालमेल बिठाते चलने की कोशिश करता है। आदिवासी समाज भी बाहरी समाज से जुड़ ही गया था। जैसे हमारे समाज में गाँव के आदमी, गरीब आदमी को हीन दृष्टि से देखा जाता है, जैसे हमारे समाज में बाजार में ऊपर चढ़ने को ही मान सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। जैसे ब्रांड वाले कपड़ा जूता पहनना, महंगा मोबाइल रखना मानक है। जैसे इन सब बातों में अपने से आगे वाले की होड़ की जाती है। कि गाँव में घर तो पास के शहर में घर हो, शहर वाला दिल्ली या पास के बड़े शहर में घर की सोचेगा। ऐसा इसलिए है कि जो ऐसा नहीं सोचता है या करता है उसे मूर्ख माना जाता है,
समाज के हर एक स्तर पर नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है और कुछ नहीं तो अपनी तारीफ़ों के ही पुलिंदे संपत्ति बाजार के सापेक्ष बांधे जाते है।
जब आदिवासी समाज के लोग बाहरी समाज के लोगों के संपर्क में आते है खासकर माओवादी, एनजीओ और उसके बाद सरकारी महकमे लोगों के साथ। तब वह क्यों नहीं महसूस करेंगे कि दुनिया भर की गरीबी और मूर्खता उनके ही हिस्से ही जैसे आ रखी हो। वह भी क्यों नहीं चाहेंगे की उनके यहाँ भी पक्की सड़के हो, पक्के मकान हो, बिजली, टीवी, रेडियो, फ्रीज, वाहन आदि का मजा उन्हें भी क्यों न मिले।
यह ऐसी पंखे वाले आरामदायक सुरक्षित कमरों में बैठकर भावुकता में सोचने वाला मामला नहीं है कि आदिवासी तो जंगल जमीन की लड़ाई लड़ रहा है।
आदिवासियों का बस चले तो जंगल जमीन के बदले कल के बजाय आज उसके लिए इन सब चीजों की व्यवस्था हो जाए तो सबसे अच्छा।
जैसा मुख्य धारा के लोग प्रयास करते है वैसे ही प्रयास आदिवासियों ने भी अपने लिए करने चाहे है वह अपने बच्चों को स्कूल भेजना हो सकता है, वह किसी एनजीओ वाले दुकानदार की चमचागीरी करना हो सकता है, वह माओवादियों के साथ जुड़ कर ही पैसा कमा लेने का कोई तरीका ढूंढ लेना हो सकता है।
आदिवासी चाहते है जैसे सारे देश मे विकास है जैसे बाकी दुनिया के पास सुख सुविधाओं के संसाधन है वैसे ही उनके यहाँ भी हो। जितना संभव हो सके यह सरकार द्वारा हो और जितनी जल्दी हो सके उतनी तेजी से हो।
माओवादियों की ताकत एवं माओवादियों को एनजीओ चलाने वालो का सहयोग –
माओवादी जब चाहते है आज की तारीख में भी बिहार, छत्तीसगढ़ में अपने प्रभावित जिलों में गाँव के गाँव बंद करा देते है। सोच कर देखिएगा कितने राजनैतिक दल ऐसा कर पाने में समर्थ रहे है।
कई कई पुलिस थाने पुलिसवालों सहित फूँक दिए गए लूट लिए गए।
पूरी की पूरी बटालियन घेर कर मार दी जाती है।
यात्री बसें यात्रियों सहित माइन से उड़ा दी जाती है।
जिलाधिकारी तक का अपहरण कर लिया जाता है।
हर साल साल दर साल हजारों की संख्या में लोगो को मारा गया।
यह सब तो मुख्य समाज के लोगों के साथ है। आदिवासी लोग कितने ही सालों तक किस डर और दहशत में जीते आए होंगे इसकी भी कल्पना कीजिए। यह अपना नेटवर्क किस हद तक मजबूत किए होंगे। क्या – क्या कहानियाँ, नेरेटिव सेट किए होंगे इसका अंदाजा लगाइए। प्रत्येक घटना को अपने प्रोपेगण्डा के हिसाब से चलाना, मुख्य धारा के समाज में वामपंथी रोमांस को जीने वाले लोगों द्वारा इसका प्रचार करना कितना कुछ साल दर साल किए है। कितने ही लोग इस तरह से सेट किए गए कि बस्तर के बारे में जो जानकारी वे देंगे केवल उसे सच मान लिया जाए।
इस सब में फायदा ढूंढा वामपंथ के रोमांस को जीने वाले एक और तथाकथित धड़े ने जिसमें से कई लोग अलग अलग करियर की सेटिंग में एनजीओ वाले कमाऊ करियर में घुसे हुए थे। लेनिन, स्टालिन, माओ तो इनके ईश्वर। और जब ईश्वर ही करोड़ों हत्याएं सत्ता को बनाए रखने और वामपंथ के रोमांस को बनाए रखने में कर चुके हो तो कुछ हजार लाख आदिवासियों के जीवन की, शोषण आदि की क्या बिसात! यह लोग बस्तर में आदिवासी विकास के नाम पर सरकार से तगड़ा फंड भी जुटाते और माओवादियों के पक्ष में जैसे बन पड़ा वैसे घटनाओं को तोड़ा मरोड़ा।
यही वो धड़ा है जो माओवादी हिंसा को जस्टीफाइ करने के लिए आदिवासियों को विकास का विरोधी प्रायोजित करता है।
बहुत सारे आदिवासियों के घरों में आज के समय में पक्के मकान मिल जाएंगे, बहुतों के घरों में टीवी, फ्रीज भी मिल जाएंगे। कई आदिवासी गांवों में सड़के मिल जाएंगी अधिकतर आदिवासी या तो पैसा कमाने के लिए अपने बच्चों को मजदूरी पर भेजना चाहता है या पढ़ाना चाहता है। आम आदिवासी सरकार का ज्यादा से ज्यादा सहयोग सड़कों, स्कूल, हैंडपंप, अस्पताल, माओवादियों से सुरक्षित करने में चाहता है। बहुत सारे आदिवासी आपको फेसबुक पर भी मिल जाएंगे, बहुत सारे आदिवासी मुख्यधारा के समाज में ही रहते है खाते कमाते है।
एनजीओ वाला धड़ा हमेशा इन सामान्य बातों को छिपाता है। आदिवासी लोग इनका भी विरोध करते आए है तो इनकी आवाज को भी इन लोगों द्वारा दबाया गया है। यदि नहीं दबाएंगे तो माओवादी हिंसा के पक्ष में एजेंडा कैसे सेट होगा। अपने आपको मसीहा बनाए रखना कैसे प्रोजेक्ट होगा। इन एनजीओ को सरकारों से मिले अनाप सनाप फंड आदिवासियों पर कभी खर्च ही नहीं हुए। खर्च हुए तो उन माओवादियों पर जिन्हें साथ लेकर ये माओवादी हिंसा के पक्ष में विक्टिम कार्ड खेलते आए है। साथ के साथ आदिवासियों और या उन्हें लाभ पहुचाने वाली योजनाओं के विरोध में। समाजिक न्याय, संवेदनशीलता जैसे मानवीय मूल्यों के तार छेड़ कर कितनी धूर्तता, सामाजिक – आर्थिक भ्रष्टता और हिंसक मानसिकता को जिया जा सकता है यह एनजीओ वाले दुकानदारों ने हमें दिखाया। माओवादियों और एनजीओ दोनों ने ही आदिवासियों को अपने राजनैतिक रोमांस, आर्थिक लाभ, सामाजिक लाभ के लिए पीसकर रखा हुआ है। आदिवासियों और आदिवासी संस्कृति को दोनों ने मिलकर भरपाई न होने वाला नुकसान दिया है।
अंत में –
हमें क्या नैतिक अधिकार है कि जिन सुविधाओं और विकास की परिभाषा में हम रहते है जिसके लिए दिन रात जीवन खपायें रहते है, यदि आदिवासी समाज के लोग भी वैसा ही जीवन चाहते, गणतंत्र मे हिस्सा लेना चाहते है तो उन्हें वह न मिले? अभी बस इतना ही।
क्रमश:
Nishant Rana
Social thinker, writer and journalist.
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.