विजेंद्र दिवाच
एक यूनिवर्सिटी में
संविधान पार्क के निर्माण का काम चल रहा था,
रात के आठ बजे तक मजदूरों का पसीना बह रहा था,
आठ दस साल का बच्चा बजरी छान रहा था,
दो पेड़ों के बीच पुरानी साड़ी के झूले पर
एक बच्चा अपने छोटे भाई – बहन को रोने से चुप करा रहा था,
जब भी मां उधर ईंट लेने आती
कहती – बस थोड़ी देर में घर चलेंगे,
ठेकेदार हर बार थोड़ा – थोड़ा समय करके
काम को आगे बढ़ा रहा था,
ये एक ठेकेदार की बात नहीं,
हम सबकी किसी को छोटा मानकर
उसका खून पीने की मानसिक प्रवृति को दिखा रहा था,
यह खेल आज भी है और सदियों से चला आ रहा था,
यूनिवर्सिटी की कांच की दीवारों के पीछे
पीएचडी वालों की पढ़ाई चल रही थी,
कोई नारी उत्थान पर,कोई मजदूरों की समस्याओं के निवारण पर,
कोई किसान आंदोलनों पर,कोई बच्चों में कुपोषण पर,
और पर्यावरण की समस्याओं जैसे विषयों पर पीएचडी कर रहे थे,
वाद विवाद कार्यक्रम चल रहे थे,
सभी अपने तर्कों पर खुश हो रहे थे,
बाहर मजदूरी करने वाले मजदूर किसी को नहीं दिख रहे थे,
इन मजदूरों की बनाई इमारत में,
मजदूरों के बच्चे हीनभावना के शिकार हो रहे थे,
लफ्फेबाजी करने वाले मोटी फेलोशिप गटक रहे थे,
पैसों के खेल से
थिसिस पर थिसिस गढ़ रहे थे,
सामाजिकता का फर्जी झंडा लेकर आगे बढ़ रहे थे,
कल इस संविधान पार्क का उद्धघाटन होगा,
सभी के अधिकारों की बात होगी,
लेकिन उस बजरी छानने वाले बच्चे के जीवन में
क्या बदलाव आएगा?
पुलिस तो गणतंत्र दिवस पर भी
हॉस्टल में घुसकर बच्चों को पीट लेगी,
पन्द्रह अगस्त को किसी दलित बच्चे की
गुरुजी वाले मटके में पानी पीने पर हत्या हो रही होगी,
कभी निर्भया तो कभी मणिपुरी के रूप में
महिलाओं की तो निर्वस्त्र परेड हो रही होगी,
वहसी भीड़ गरिमामय जीवन की बोटियां नोच रही होगी,
कहीं ना कहीं कोई मां
फिर अपनी पुरानी साड़ी दो पेड़ों के बीच बांध रही होगी,
संविधान पार्क में किसी की राजनीतिक भक्ति चल रही होगी,
आम आदमी के जीवन की गाड़ी तो वैसे ही
रोजमर्रा के झमेलों के हिचकोले में चल रही होगी।

विजेंद्र दिवाच
Writer, Social Thinker