Chaitanya Nagar
बुध्द को भक्तों की दरकार नहीं थी। अनुयायियों की भी नहीं। वियतनाम के भिक्खु थिच न्हात हन अपनी किताब ‘ओल्ड पाथ वाइट क्लाउड्स’ में लिखते हैं कि एक बार कुछ लोग आपस में बहस कर रहे थे और बुद्ध उसी रास्ते से गुज़र रहे थे। वह उन लोगों की बात-चीत सुनने लगे। उनकी बहस का विषय ही बुद्ध थे और उनकी बहस इस बात को लेकर थी कि बुद्ध ने क्या कहा और क्या नहीं। थोड़ी देर उनको सुनने के बाद बुद्ध ने कहा,”तुम लोगों की बहस का कोई मतलब ही नहीं क्योंकि वास्तव में तो मैने कभी कुछ कहा ही नहीं!”
 
अपनी शिक्षाओं के बारे में वह कहा करते थे कि उन्हें एक प्रयोग के तौर पर अपनाया जाना चाहिए। संभवतः इसलिए क्योंकि मन की गतिविधियों की समझ, दुख के अनुभवन और उसके प्रति हमारा प्रत्युत्तर कितना यांत्रिक है, कितना सृजनात्मक, यह सब जानना किसी भी शिक्षा की बौद्धिक समझ मात्र से सम्भव नहीं। इस तरह की शिक्षाओं को जीना पड़ता है, अपने हृदय के क्रूर एकाकीपन में इन्हें खिलने का अवसर और स्पेस देना पड़ता है। इसीलिए बुद्ध कहते थे कि जिस तरह कोई सुनार सोने को छू कर, देख कर, महसूस करके, घिस कर उसके खरे होने का पता करता है, ठीक वैसे ही हमें उनकी शिक्षाओं के साथ करना चाहिए। उन्हें लेकर ढोल पीटने, उन्हें क्लिष्ट दर्शन में परिवर्तित करके अपनी बौद्धिकता का प्रदर्शन करने या बुद्ध की भक्ति करने से उस पवित्र और अतिसंवेदनशील मानव और उनकी शिक्षाओं का अपमान ही होगा। यह एकाकी यात्रा है। बुद्ध की देशना अकेला होने की आवश्यकता पर बल देती हैं। वह कहते हैं कि जंगल में ‘गैंडे के सींग’ की तरह ही अकेला होने की जरूरत है हम सभी को। यह भौतिक से कहीं अधिक एक मनोवैज्ञानिक, मानसिक अकेलापन है—मतों, रूढ़ियों, सर्वसम्मत धर्मों, गुरुओं और रोजमर्रा के भोंडे शोर से दूर होने पर उपजा अकेलापन। 
 
बुद्ध अपनी शिक्षाओं को लेकर एक छोटी नौका या बेड़े का भी उदाहरण देते थे। उनका प्रश्न था कि क्या नदी पार करने के बाद उस बेड़े को आप अपने गले से लगाकर घूमेंगे जिसकी मदद से आपने नदी पार की। नहीं। ठीक वैसे ही आप अपनी चेतना, दुख के प्रश्न, उसकी समाप्ति की संभावना को समझ लेने के बाद मेरी शिक्षाओं को सीने से लगाकर न घूमें। शिक्षाओं की भूमिका है, उसकी एक सीमा भी है। वह जब खत्म हो जाये, तो शिक्षाओं को एक ओर रखकर अपने मार्ग पर चल पड़ना ही बेहतर होगा। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी कही हुई बातें तो चाँद की ओर इशारा करने वाली उंगली जैसी हैं; आप चांद की ओर देखें, न कि उनकी उंगली की ओर। और उंगली थामें तो बिल्कुल नहीं। सम्यक सबुद्ध शाक्यमुनि शिष्यों और व्याख्याकारों से उत्पन्न होने वाले खतरों के प्रति पूरी तरह सजग थे।
 
ज़ेन बौद्ध इस बारे में एक बड़ी ही अद्भुत बात कहते हैं। उनकी कई कथाओं में से एक में कोई ज़ेन शिष्य अपने शिक्षक से पूछता है: 
“यदि बुद्ध रास्ते में मिल जाएं तो हम क्या करें?”
“उनको मार डालो”, शिखक उत्तर देता है। 
 
हमें शिक्षक की नहीं शिक्षाओं की आवश्यकता है। वह भी तब तक जब तक हमारी अपनी समझ स्पष्ट नहीं हो जाती। सिर्फ भक्त और अनुयायी होने पर तो हमारा हाल सूप में पड़े उस चम्मच की तरह होगा जो चाहे तो पूरी ज़िंदगी सूप के कटोरे में पड़ा रहे, सूप का स्वाद कभी नहीं जान पायेगा।

चैतन्य नागर
एक स्वतन्त्र लेखक है, अध्यापन, अनुवाद-कार्य  और पत्रकारिता से जुड़े रहें है। विशेष तौर पर समाज, संस्कृति  शिक्षा पर  लिखते है।