Chaitanya Nagar
अक्सर नेताओं, मंत्रियों और अधिकारियों में पैसों और ज्यादा सामाजिक ताकत की अदम्य भूख देख कर लगता है कि हम एक समाज के रूप में निरंतर अभावग्रस्त ही महसूस करते रहते हैं? क्या सदियों की गुलामी कारण दरिद्रता के भाव में स्थायी रूप से ठहर गए हैं? किसी बड़े अधिकारी के अपने या उसका हिसाब-किताब रखने वाले के घर में करोड़ों की नकदी निकलती है| कोई अधिकारी सपत्नीक, सश्वान टहलने के लिए एक बड़े से स्टेडियम से खिलाडियों को हटवा देता है| यह कैसी भूख है जो खुद जैसे लोगों को ही परेशान करके शांत होती है; खासकर उन लोगों को, जिसकी सेवा के लिए उन्हें नियुक्त किया गया है| ब्रिटिश काल में बड़े सरकारी अफसर आई सी एस कहे जाते थे| उनके बारे में यह विख्यात था कि न ही वे भारतीय (इंडियन) हैं, न ही सिविल (विनम्र) हैं, और न ही सर्वेन्ट्स (चाकर) हैं| बाद में उन्हें आई ए एस कहा जाने लगा| नाम बदला, पर चरित्र, आचरण नहीं बदला| अब इन्हें इंडियाज़ एरोगैंट सर्विस (भारतीय अहंकारी सेवा) कहा जाता है| विश्ववास न हो तो अपने जिले के किसी कलेक्टर या कमिश्नर से मिलने की कोशिश कीजिये| या तो ये स्पष्ट रूप से अहंकारी और सामंतवादी होते हैं, और या फिर कृत्रिम रूप से संवर्धित विनम्रता का भद्दा लबादा ओढ़े रहते हैं, जो इनको अधिक हास्यास्पद और टुच्चा बना देता है| इनके भ्रष्टाचार और अहंकार के किस्से आये दिन सुनने को मिलते हैं|पर कोई भी स्थिति पूरी तरह श्वेत-श्याम नहीं होती| बीच में कई और शेड्स भी होते हैं| अहंकारी आचरण की ख़बरों के बीच बिहार में एक कलेक्टर को सरकारी स्कूल में बच्चों के साथ ज़मीन पर बैठ कर भोजन करते देख सुकून मिलता है|वह साइकिल से अपने आवास से दफ्तर जाते हैं,यह बात भी राहत देती है|
राजनीतिक लोकतंत्र तो फिर भी आसान है, पर सामाजिक और सांस्कृतिक लोकतंत्र इतनी आसानी से नहीं आता। आप खुद से कमज़ोर लोगों के साथ, परिवार में अपने से छोटे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, यदि उसी में लोकतंत्र नहीं तो नेता, मंत्री, अधिकारी बनकर आप अचानक लोकतान्त्रिक कैसे हो जाएंगें। दिन रात जब सामंतवाद चबायेंगे तो डकार लोकतंत्र की कैसे आएगी? कोई मशहूर खिलाड़ी अपने रास्ते में आने वाले बुजुर्ग को झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद करता है उसकी मौत हो जाती है| उसकी हरकत वायरल हो जायेगी, इसकी भी उसे फ़िक्र नहीं रहती। शोहरत और सत्ता का अहंकार सचमुच देखने, सुनने, सोचने की क्षमता को हर लेता है!
लोकतंत्र के चिंहुड़े कुरते-सदरी, साड़ी के भीतर सामंतवादी, राजा-प्रजावादी त्वचा खिलखिला कर हंस रही है। राजनैतिक लोकतंत्र तो बाहर से थोपा जा सकता है, पर उसी लोकतंत्र को समाज, घर-परिवार और डीएनए का हिस्सा बनने में लोहे के चने चबाने पड़ते हैं। सामंतवादी लहू जो पीढ़ियों तक रगों में बहा है, वह आँखों से न टपके तो फिर लहू क्या है! पर आश्चर्य इस बात का भी है कि ये महान लोकतान्त्रिक ‘राजा’ अभी भी मीडिया की सर्वव्यापकता से अनभिज्ञ हैं। सामूहिक भारतीय रसना राजतंत्र, सामंतवादी साहबी, और चरण चम्पी करने-करवाने के स्वाद में लिपटी हुई है| ये बड़ा ज़िद्दी स्वाद है, जाने का नाम ही नहीं लेता।
लोकतंत्र जितना परिपक्व होगा, व्यक्ति पूजा उतनी कम होगी, नेता खुद को आम जनता का हिस्सा समझेगा, न कि उनसे बेहतर। पूर्वांचल के राज्यों में तो नेता लाव लश्कर लेकर चलने में सबसे आगे हैं। जो जितना छुटभैया नेता होगा उसके साथ उतने ही ज़्यादा बड़ा काफिला चलेगा। कहीं कोई गलती से इन्हे अ-नेता न समझ बैठे इसका पूरा बंदोबस्त किये रहते हैं! बड़े अधिकारियों और मंत्रियों के काफिले को चलने में दिक्कत न हो इसके लिए सड़कें बंद कर दी जाती हैं, और बच्चों को भयंकर तपती हुई गर्मी में स्कूल के दरवाज़ों के पीछे इंतजार करते हुए देखा जाता है।
बाहर से हम लोकतंत्र हैं और भीतर से, बहुत भीतर तक, अपने हाड, मांस, रक्त-मज्जा में राजतन्त्र हैं। हमारी भाषा ही ऐसी बन गयी है। जब कोई अच्छे खासे कपड़े पहन कर निकलता है तो लोग कहते हैं: ‘आप तो पूरे राजकुमार/राजकुमारी लग रही हैं!’ हमारे यहां अभी भी कलेक्टर और मुख्यमंत्री, नेता और विधायक, बराबर ‘दरबार’ लगाते हैं, प्रजा की फरियाद सुनने के लिए। डी एम को जिले का राजा कहना आम बात है| किसी को सामने झुकवाने वाला इंसान सही मौका देखकर चापलूसी करने में भी माहिर होता है। चापलूसी करते समय जो उसे झुकना पड़ता है, उसकी कीमत वह दूसरों को खुद के सामने झुकवा कर वसूलता है। यह अहंकार की बनियागिरी है जो किसी से मिलने वाले ज़ख्मों की दवा किसी और से करवाता है। अभावग्रस्त मानस जैसे ही धन और सत्ता का स्वाद पाता है, उसे जी भर कर भकोसता है, अपनी अश्लील भूख को पूरी बेशर्मी के साथ जीता है|
चैतन्य नागर –
एक स्वतन्त्र लेखक है, अध्यापन, अनुवाद-कार्य और पत्रकारिता से जुड़े रहें है। विशेष तौर पर समाज, संस्कृति शिक्षा पर लिखते है।