सड़क

अंधेरो को कम करने के वास्ते लाए थे रोशनी,
ये तो नहीं कहा था कि रात ही ले जाएंगे;
पुल जिसने कहा था कि ले जायेगा उस पार,
जाने कैसे खुद पी गया सारी नदी को।

पोखर नदियां खाली होने से पहले,
बहुत कुछ सूख चुका होगा आदमी के भीतर भी;
आँखों का पानी सूखा होगा, तब नजर बदली होगी;
एक ही नशा थोड़े न है, आदमी के चढ़ने को दिमाग को।

चिड़िये, कछुए, हिरण मछली इनके दम तोड़ने से पहले,
आदमी के मन के भीतर मरा होगा बहुत कुछ भी;
“विकास” जो कह रहा था कि जीवन आसान करेगा,
जाने कब जहरीला कर गया हवा, पानी, जमीन को।

कल भी उसकी मेहनत को लूटा गया था,
आज भी उसे ही ठगा जाता है;
आसमान छूती अर्थव्यवस्थाएं, पैसों के ढेर,
जाने कैसे भूखा छोड़ गए इतने बच्चों को।

किसी समतल हुए सजीव पहाड़ का कतरा थी,
अपनो से दूर ले जाते रास्ते पर मरी पड़ी है जो पथरियाँ;
सड़क जो लगा था कि ले जा रही है शहर, दरअसल लौटी थी गाँव को,
मोल-भाव कर आई थी सदियों पहले वो आदमी के ज़मीर को।

 

कदम

भूख लगी तो और तेज किए कदम,
बच्चों बूढों ने बेबसी से आसमान ताका था।

किस्सा उन्होंने यूं सुनाया था,
पैरों के छालों को छिपाया था।

व्यवस्था भले न समझे हो,
सत्ता,डण्डा और हाथ जोड़ने का सम्बन्ध खूब परखा था।

लहू पीकर जिनके यह बना हुआ था,
‘शहर’ उन्हें दो दिन न सम्भाल सका।

आभावों में जिए थे तो कौन सा यहां भी छत मयस्सर हुई,
यहीं सोच कर गांव का ख्याल आया था।


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.