हम बैठे बिठाए केवल लड़की होने के कारण लाखो भ्रूण हत्याओं को पचा कर शाकाहार की बात कर लेते है।
हम करोड़ो लोगों को भुखमरी की और धकेलते हुए शाकाहार की बात कर लेते है।
हम दहेज के लिए, प्रेम विवाह के लिए जान से मार देते हुए शाकाहार पर उपदेश दे देते है।
अपने ही देश के लोगों को युद्ध उन्माद, दंगो फसाद में बड़े गर्व के साथ बलि चढ़ा कर शाकाहार की बात कर लेते है।
करोड़ो किसानों , मजदूरों को अपने भोग की आग में निरंतर झोंक रहे है, धर्म जाति के नाम पर परिवार, समाज में नफरत घोलते रहने को हत्याएं करने को संस्कृति बताते आ रहे।
कोई अंदाजा है प्राकृतिक संपदा का दोहन कितना कर चुके, कितने वन जन्य जीव जंतुओं को मिटा चुके ? कोई अंदाजा है कितने मनुष्यों के रक्त में डूबी हुई है खुद को महान मानने की कल्पना!
वाकई इसी को शाकाहारी होना कहते है जो खुश होती है लोगों के मरने पर, उनके घर जलने पर।
अगर शाकाहारी होने के पीछे आपका धार्मिक कारण न हो कर संवेदनशीलता होता तब क्या इतना ही रक्तपात मचा होता ।
अगर संवेदनशील मन होता तब क्या प्रकृति की ओर न बढ़ते। लोकतंत्र की तरफ न बढ़ते। हर व्यक्ति की स्वतंत्रता का ख्याल न रखते। लेकिन क्या करे हमने सीखा ही ढोंग और दोगलेपन को जीना है।
संवेदनशीलता भी छोड़िए शर्म भी होती , सोचने समझने की जरा भी अक्ल होती तब क्या ऐसे लोगों को गालियां बक रहे होते जो पूरा जीवन लगा दिए प्रकृति के लिए, सच को सामने रखने के लिए , हजारों लोगों का जीवन सुधारने के लिए।


चलते चलते –

जाति-धर्म के चोले में जितना व्यक्ति फसेगा व्यक्ति उतना ही बाजारू बनेगा उतना ही हिंसक होता जाएगा। खेती आदि के लिए उतनी ही जमीन कम होती जाएगी। जो बचेगी भी वह भी अपनी उत्पादन करने की शक्ति कितना बचा पाएगी ! सिचाई छोड़िए पीने के लिए पानी कितना बचेगा यह कहना मुश्किल है।


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.