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धर्म की रक्षा करने वाले संघठनों ने जिस धर्म की रक्षा कर रहे होते है उस धर्म का , देश का और उसी धर्म को मानने वालों का सबसे ज्यादा नुकसान किया है । धार्मिक संघठन चाहे किसी भी देश अथवा धर्म के रहे हो । दूसरों के लिए पैदा की गयी घृणा
खुद को ही सड़ाती जाती है। लोगों के मन में पैदा किये गए छोटे छोटे घृणा के बीज ही इनके फैलाव की वजह बनते है।
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विश्वगुरुओं की सत्ता और शक्ति की हनक लाखों लोगों को मरवा सकती है, अपने ही पड़ोसियों के घरों को जला सकती है , अपने ही साथ रहने वालों को दोयम दर्जे का समझ सकती है। विश्व गुरु यह काम मुर्दा शांति से बिना गुस्से के जय मातृभूमि बोलते हुए आराम से सदियों तक करते रह सकते है।
इस तरह के विश्वगुरु पूरी दुनिया में पाये जाते रहे है। भारत में इनकी संख्या बहुतायत में है।
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विश्वगुरुओं को गुस्सा नहीं आता।
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ये हमारें मन है जिनमें एक दूसरे के लिए धर्मों के नाम पर जाति के नाम पर नफरत भरी हुई है । राजनैतिक दल केवल और केवल सत्ता के लिए इस नफरत को हमेशा बढ़ाना और इस्तेमाल ही करना चाहेंगे । आज ऐसे राजनैतिक दलों की संख्या कम हो सकती है लेकिन कल हमारी नफरत को एक से बढ़ कर एक उग्र दल चाहिए होगा की भई तुम्हारी कट्टरता बड़ी हलकी है दूसरे को देखों सीधे मरने मारने की बात कर रहा है ! कुछ एक देशों में ऐसी होड़ देखी जा चुकी है वहां आज धार्मिक कट्टरता के नाम पर आतंक और भुखमरी के अलावा कुछ बचा हो तो बताइये । अपनी ही बर्बादी की ये कौन सी दिशा है ? कोई भी व्यक्ति जो केवल अपने फायदे के लिए दो लोगों को लड़ा रहा है वह किसी एक को भी सही दिशा में कैसे ले जा सकता है !
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हम कई-कई आत्माएं लिए फिरते है । एक दूसरों को कोसने के लिए एक खुद को जस्टीफ़ाइड करने के लिए । हम जातिवाद, धार्मिक कट्टरता को मानते हुए जबर्दश्ती दहेज़ के लिए दवाब बनाते हुए, खुद भ्रस्ट होते हुए इन्हीं मामलों में किसी ओर को बड़े आराम से कोस सकते है।
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जाति व्यवस्था का पत्थर यदि हमारें दिमागों में नहीं रखा होता तो संभवत: भारत जीवन दर्शन के कुछ अलग उदाहरण दे पाता । लेकिन औरो से बाजारू रूप से श्रेष्ठ दिखने की होड़ वाला पत्थर आदमी को अंदर से इतना डराये हुए है की वह ढर्रे से अलग जीवन जीने की कल्पना से भी डरता है । कायरता, हिंसा का यह पत्थर जब तक पटल पर है हमारे सारे निर्णय बाजारू बनने के इर्द गिर्द ही घूमेंगे।
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बाजारू कुंठायें इतनी की बीबी, बच्चे, पति को भी बेच दे । धार्मिक कुंठायें इतनी की बाजारू कुंठायें भी सीधे सीधे पूरी नहीं कर पाते, लगभग पूरी जिंदगी इन्हीं कुंठाओं के गठजोड़ तालमेल बैठाने में बीतती है।
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हमारे यहां प्रेमी/पति/पिता भ्रूण हत्याओं, शारीरिक व मानसिक शोषण, आजादी को ख़त्म करने में ही आजीवन लगे रहते है।
अगर यह प्रेम है तो नफरत क्या है ?
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Nishant Rana
Social thinker, writer and journalist.
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.