भारतीय समाज को जाति व्यवस्था ने इतना दमित और प्रदूषित किया है कि यहां रहने वाला व्यक्ति स्त्री या पुरुष प्रेम स्वतंत्रता का कहकरा भी नहीं समझते। भारतीय समाज समाजिक संस्कारों में प्रेम और स्वतंत्रता जैसे भावों की निरंतरता में भ्रूण हत्या करता चलता है, चला आया है। जिस समाज में इन भावों का ही कोई स्थान नहीं होगा वहां का व्यक्ति न तो सम्मान के बारे में कुछ जान समझ सकता है, न स्वाभिमान के बारे में और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में।
समझना छोड़िए वह इनकी कल्पना भी नहीं कर सकता है।
भारतीय समाज केवल और केवल शोषक और शोषित आधारित व्यवस्था पर चलने वाला दमनपूर्वक चलने वाला समाज है।
यहां मान सम्मान स्वाभिमान का अर्थ केवल इतना है कि जो जो आपके शोषण तले आते है वह आपसे बराबरी में बात न करे, बराबरी में न खायें पिये, आपके जैसा ओढ़ना खाना पीना रहना न हो। स्वाभिमान पूरे तैश के साथ बरकार रखने के लिए सारे जतन इसी व्यवस्था को बनाये रखने के है।
यहीं स्वाभिमान अपने से ऊपरी व्यवस्था के व्यक्ति, संस्था पर तुरन्त गायब भी हो जाता है क्योंकि जो व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति का शोषण करता है उसे किसी भी सामाजिक व्यवस्था की कंडीशनिंग या अन्य कंडीशनिंग के कारण जायज ठहराता है चाहे वह अपने ही परिवार की स्त्री बच्चों तक सीमित हो वह अपने से ऊपरी व्यवस्था द्वारा किए गए शोषण को भी स्वीकार करेगा ही करेगा, स्वीकार न करने का कोई सवाल ही नहीं।
जो समाज दमित हो स्वयं के प्रति एवं अपनो के प्रति ही क्रूर हो वहां अपने निजी स्वार्थों के लिए चापलूसी, धूर्तता ही काम करते है भले ही मान सम्मान अच्छे बर्ताव की पारिवारिक सम्बन्धों में भी कितनी ही परते ओढ़ ली जाये।

चलते-चलते :-

और बात ही क्या की हमारे समाज का मान-सम्मान स्वभिमान इतने ऊंचे दर्जे का है कि यह कभी बैंकों की लाइन में चुप-चाप लग जाता है। कभी KYC के नाम पर इज्जत बख़्शी जाती है कभी NRC के नाम पर। कभी अपनी ही मांगो के नाम पर लाठियां पड़ना।
इसका सबसे ताजा उदाहरण है मोटर व्हीकल एक्ट के नाम पर गुंडागर्दी थोपना उससे भी बड़ी बात इसे स्वीकार कर लिया जाना। गिगयाने, मिमयाने की आदत तो हमें बचपन से ही डाल दी जाती है तो इस सब को भी स्वाभिमान से क्या ही जोड़ना।
अब ऐसा तो है नहीं कि जो भी शासन प्रशासन है वह कहीं बाहर का हो और हम पर चीजें थोप रहा हो। अब तो हमारी ही बनाई हुई व्यवस्था है तंत्र है दूसरे को तो इसका दोष दिया ही नहीं जा सकता।

यदि समाज के आपसी संबंध ठीक हो, समाज गुंडागर्दी, शोषण शोषक पर आधारित समाज न हो तो ऐसा शासन प्रशासन अस्तित्व में आ ही नहीं सकता जिस पर अनाप शनाप अधिकार हो, लोगों के साथ अनाप शनाप व्यवहार कर सके, गुंडागर्दी थोप सके।
चूंकि हम अभिशप्त है शोषक बनने को इसलिए शोषित होने को भी अभिशप्त ही है।

अपवादों की बात ही क्या की जाये, हममें धूर्तता इतने गहरे में बैठती है कि हर व्यक्ति अपने को अपवाद ही समझता है।

 


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.