Sanjay Shraman
निर्वाण या समाधि के बारे में बार-बार पूछा जाता है, और पूछने वालों का मकसद अक्सर यही होता है कि एक अनुभव के रूप में इसे कैसे समझा जाए? इस तरह के प्रश्नों में एक दूसरा आयाम यह भी होता है कि निर्वाण को मन की स्थिति के रूप में कैसे जाना जाए? एक तीसरा आयाम और इस प्रश्न से जुड़ता है वह है धर्म विशेष के दार्शनिक फ्रेमवर्क में इस निर्वाण को कैसे और कहां रखकर देखा जाए?
मुझसे जब यह प्रश्न पूछा जाता है तो मैं इस प्रश्न को इन तीन प्रश्नों मैं तोड़ कर देखता हूं। आज फिर से जब यह प्रश्न पूछा गया तो मैंने तय किया कि मैं इन तीनों आयामों पर लिखूंगा। मुझे उम्मीद है कि गौतम बुद्ध के मनोविज्ञान और बौद्ध दर्शन की आंतरिक भित्ति को समझने के लिए कई मित्रों को इससे मदद मिलेगी। ऐसे विषयों पर लिखने के बाद अधिकांश मित्र यह प्रश्न पूछते हैं कि यह आप अनुभव से कह रहे हैं या अनुमान से कह रहे हैं? मैं बात को शुरू करने के पहले ही इसका उत्तर दे देना चाहता हूं।
धर्म दर्शन या मनोविज्ञान सहित ध्यान समाधि इत्यादि के अनुभवों पर जो भी कहा जाता है उसमें अनुभव और अनुमान दोनों शामिल होता है। यहां पर अनुमान का अर्थ अटकल बाजी नहीं होता। दर्शनशास्त्र और मनोविज्ञान में अनुमान एक परिभाषिक शब्द है । इसका अर्थ होता है कि जो कुछ भी देखा गया है और जाना गया है उसकी स्वाभाविक परिणति किस अवस्था में या किस अनुभव या किस दृश्य में होगी इसका तार्किक रूप से निरूपण करना। यह निरूपण अपने अंदर भी होता है और बाहर भी होता है। अगर आपको आनंद का अनुभव होता है और उस आनंद के अनुभव से आपके जीवन ऊर्जा और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य में अभिवृद्धि होती है तो अनुमान कहता है कि आनंद ही जीवन का स्रोत है और लक्ष्य भी है।
इसके विपरीत अगर आपको अनुभव होता है दुख का, और इस अनुभव के बाद आप की जिजीविषा क्षीण होती है आपकी सृजनात्मक उर्जा कमजोर होती है तो अनुमान कहता है कि दुख जीवन की स्वाभाविक अवस्था नहीं है बल्कि उसके विपरीत है। इस तरह अनुमान अनुभव पर आधारित होकर उस अनुभव से निकलने वाले स्वाभाविक परिणामों का तार्किक विस्तार होता है। विशेष रूप से अनुभव और अनुभूति के जगत में इसका बहुत महत्व है। क्योंकि अनुभव मन के द्वारा होता है इसलिए मन के द्वारा ही इसका ज्ञापन भी होता है।
एक और बात कहनी जरूरी है कि अनुभव की बात आते ही लोग पूछते हैं आपने कौन सा ध्यान किया है। उन्हें बताया जा सकता है कि बुद्ध की परंपरा में ध्यान का एक ही मतलब होता है वह सतीपट्ठान। इस सतीपट्ठान का जिन लोगों को अनुभव है, और जो लोग इसकी विकसित भूमिकाओं में जा सके हैं वे इसे आसानी से समझ पाएंगे। और जिन लोगों का अनुभव नहीं है उनके लिए पूरा प्रयास किया जा सकता है कि वह तर्क और शब्दों के माध्यम से समझ सकें।
माइंडफ़ुलनेस या सम्यक स्मृति सचेतन प्रयास के द्वारा की जा सकती है लेकिन इसके बाद सभी प्रयासों की सफलता स्वरूप सतीपट्ठान की भूमिका शुरू होती हैं यहां प्रयासों की आवश्यकता नहीं होती। जहां तक प्रयास जाता है वहां तक आप यही कर सकते हैं। उसके बाद जहां प्रयास भी स्थगित हो जाते हैं उस स्थिति को नाम देने की कोई आवश्यकता भी नहीं होती। सतीपट्ठान जैसे कि सामान्य बोलचाल की भाषा में इंग्लिश में माइंडफुलनेस का स्थापित होना, यह संस्कृत में सम्यक स्मृति का स्थापित होना, और पाली में सम्मा सती का स्थापित होना कहा जाता है। इन विषय में बहुत सारे मतभेद हैं। इनके बारे मे अलग अलग स्कूल ऑफ थॉट हैं।
इस सब को पढ़ते हुए बहुत चमत्कृत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। दुर्भाग्य से इन सामान्य सी बातों को भी बहुत चमत्कार और जन्म जन्मांतर की बकवास से जोड़कर देखा और दिखाया जाता है। यह सब बाबगिरी का षड्यंत्र है। सम्यक स्मृति या सम्मा सती या माइंडफ़ुलनेस सहित सतीपठान इत्यादि सब स्वाभाविक सी बातें हैं। इनमें कहीं कोई चमत्कार इत्यादि नहीं होता। यह बस मन के होने या ना होने के अनुभव भर हैं। कुछ अनुभव याद रहते हैं और कुछ अनुभवों का स्वाद बाद में आता है।
अब निर्वाण की बात शुरू करते हैं, इसे अगर एक अनुभव के रूप में देखा जाए तो वास्तव में यह नो सेल्फ अर्थात अनात्म के या शून्यता के अनुभव का सदा के लिए स्थापित हो जाना है। असल में यह एक ऐसा अनुभव है जिसमें इस सेल्फ के निर्माण करने वाले सभी तत्व स्थगित हो जाते हैं। गौतम बुद्ध के दर्शन में शरीर और मन के द्वारा व्यक्तित्व का निर्माण होता है। सरल अर्थों में कहा जाए तो आपका जो शरीर है और जिस तरह का मन आप ने बनाया है उसका मिलाजुला रूप ही आपका व्यक्तित्व है जिसे आप ‘मैं’ या ‘अपने होने’ के रूप में जानते हैं।
इसके विस्तार में जाएं तो समाज और दुनिया से आपका जो भी व्यवहार होता है उसका भी बड़ा हिस्सा आपके इस कामचलाऊ और नश्वर मै में जुड़ जाता है। इस तरह आप अपने आप को एक तरफ आंतरिक ढंग से जानते हैं और दूसरी तरफ दूसरों के नजरिए से जानते हैं। आप खुद अपने बारे में क्या जानते हैं, और दूसरे आपके बारे में क्या जानते हैं। ऐसी बहुत सारी बातों को मिलाकर आपका सेल्फ बनता है। इस बात के बहुत बारीक विस्तार है मैं उस में नहीं जाना चाहता हूं। सरल सी बात इतनी है कि आपका शरीर और आपका मन मिलकर आपका व्यक्तित्व बनाता है, इसे ही आप एक अर्थ मे अपना सेल्फ समझ सकते हैं।
जब आनापान पर अवलंबन किए हुए होश की गहरी अवस्थाओं में आप जाते हैं तब आपको शरीर और संवेदनाओं का भयानक जंगल नजर आता है। इसके बाद बहुत सारी प्रणालियां है जिसमें अलग-अलग तरह से अनुभवों की व्याख्या और व्यवस्था है। जिस अभ्यास को विपश्यना कहा जाता है उसके बहुत सारे प्रकार है। जितने भी बौद्ध देश हैं या संप्रदाय हैं उनमें लगभग सबकी अपनी-अपनी विपश्यना है और उसके आगे पीछे के तरीके है। लेकिन मूल रूप से सभी तरीकों का केंद्रीय सूत्र अवेयरनेस है। आनापान सहित शरीर की सभी संवेदनाओं को जानते हुए धीरे-धीरे मन स्थिर होता है। देखने की और अनुभव करने की क्षमता बढ़ती है। इसके बाद बहुत आसानी से यह नजर आने लगता है कि जिसे शरीर कहा गया है वह कोई छोटी सी घटना नहीं है। शरीर के अंदर अनुभव का पूरा ब्रह्मांड छुपा हुआ है। और मूल रूप से अनुभव का यह जगत आपकी फिजिकेलिटी से जुड़ा हुआ है।
जैसे जैसे आप अपनी भौतिक अवस्था को, अपने शरीर के आयतन और उसके ठोस भौतिकपन को पूरी तरह देख लेते हैं आप इससे आगे बढ़ सकते हैं। वैसे इस फिजिकेलिटी में जाने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। जो लोग थोड़ी अमूर्त बातों को आसानी से समझ पाते हैं भौतिक संवेदनाओं मे जाने की कोई आवश्यकता भी नहीं है। लेकिन अधिकांश लोग अमूर्त बातों को समझ नहीं पाते, इसलिए उन्हें सांसो और शरीर के कम्पन्न से शुरू करना सिखाया जाता है। यह भी अच्छा तरीका है। धीरे-धीरे इसमें अभ्यास प्रबल होने के बाद अमूर्त और सूक्ष्म अनुभवों को पकड़ने की ताकत आ जाती है। इसके बाद असली चरण आता है जिसमें कि अनुभव करने वाले को पकड़ना होता है।
भाषा में ऐसा कहना आसान है कि अनुभव करने वाले को पकड़ना होता है, लेकिन यह बात पूरी तरह सही नहीं है। ठीक से कहा जाए तो ऐसा है कि अनुभव जब हो रहा है तब अनुभव की प्रक्रिया को देखना होता है। इसे सामान्य भाषा में अनुभोक्ता को अनुभव करना कहा जाता है। इस तरह कहना भी पूरी तरह सही नहीं है लेकिन इससे कुछ दूर तक बात कहने में आसानी होती। फिर इसके भी आगे अनुभव की शुद्धतम प्रक्रिया तेल की धार की तरह अविच्छिन्न बहती है। इस बिंदु पर अनुभोक्ता और अनुभूति दोनों ही खत्म हो जाता है, सिर्फ अनुभव की प्रक्रिया बची रहती है। जहां तक लिखा या बोला जा सकता है उसकी बात यहां आकर समाप्त हो जाती है इसके बाद जो अनुभव होता है वह लिखा या बताया नहीं जा सकता।
यहां दोबारा ध्यान दीजिए कि उस अनुभव को लिखा या बताया नहीं जा सकने का कोई बहुत महान कारण नहीं है। इसके पीछे बहुत ही सामान्य कारण है। उस अनुभव को बहुत महान और दिव्य बताना एक राजनीति है। जिन लोगों को उसका थोड़ा सा भी अनुभव है वो जानते हैं कि यह कितना सामान्य अनुभव है। इस अनुभव में कई लोगों को बहुत आनंद आता है कई लोग बहुत तटस्थ होकर शांत हो जाते हैं। शांति और आनंद के बीच में और बहुत सारी चीजें हैं जो कि अलग-अलग लोगों को अलग-अलग ढंग से अनुभव होती है। लेकिन एक बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि इसमे दिव्यता और महानता का लेश मात्र भी कोई तत्व नहीं है।
उदाहरण के लिए जब आप एक छोटे बच्चे से दुलार कर रहे होते हैं तब आपको वात्सल्य और प्रेम का जो अनुभव होता है क्या आप उसे लिख सकते हैं? एक छोटा सा बच्चा जब अपनी मां की गोद में बैठा होता है तब उसे जो अनुभव होता है क्या कोई उसे लिख या बोल सकता है? वह भी उसे नहीं बता सकता। जब आपका कोई प्यारा मर जाता है अब आपके भीतर जो खालीपन होता है आप उसे भी किसी को नहीं बता सकते है। इसी तरह वो तथाकथित दिव्य अनुभव भी है। उसमे कोई विशेषता नहीं है।
इसमे विशेषता तब पैदा होती है जब उसे किसी संदर्भ में अलंकृत भाषा में व्यक्त किया जाता है। यह ठीक है ऐसा ही है जैसे कि रात में आप कोइ सपना देखते हैं, अब सपने में असल में कोई क्रम या व्यवस्था नहीं होती है। लेकिन जब आप जागते हैं तब दूसरों को सुनाने के लिए या अपने आप को समझाने के लिए आपका मन उसके अंदर एक व्यवस्था आरोपित कर देता है। इस प्रकार उसे समझना आसान हो जाता है। लेकिन यह एक काम चलाउ व्यवस्था है। ध्यान समाधि या निर्वाण इत्यादि के तथाकथित महान अनुभव सब इसी प्रकार के होते हैं। उन अनुभवों में अपने में कुछ नहीं होता है लेकिन जिस संदर्भ में वह घटित होते हैं और उनसे जिन प्रश्नों का उत्तर निकलता है उसपर उनकी तथाकथित दिव्यता निर्भर करती है। अब चूंकि अधिकांश लोगों को वे प्रश्न और वे उत्तर बड़े लगते हैं इसलिए ये अनुभव महान नजर आने लगते हैं। यह भी एक दृष्टिदश ही है।
यहां एक बात बहुत सावधानी से नोट करनी चाहिए कि इस अवस्था में पहुंचने के पहले आप जिन प्रश्नों से जितने अधिक पीड़ित होते हैं उतना ही अधिक आनंद प्रशांति और स्थिरता का अनुभव आपको इस अवस्था में होगा। उदाहरण के लिए अगर आप दो दिन से प्यासे है तो आपको पानी पीने पर बहुत अधिक आनंद और तृप्ति का अनुभव होगा। लेकिन अगर आप अपने घर में हैं और पानी आपके टेबल पर ही रखा रहता है तो उसकी तृप्ति का स्वरूप सामान्य होगा। इसीलिए पहली बार जब भी अनुभव होता है तब बहुत अधिक आनंदित करता है। लेकिन धीरे-धीरे इसका आनंद कम होता जाता है। और अंत में एक स्थिरता शांति और तटस्थता स्थाई रूप से बन जाती है। हकीकत में एक समय के बाद किसी आनंद की कोई आवश्यकता भी रह नहीं जाती। आनंद की आवश्यकता भी तकलीफ की पृष्ठभूमि में होती है। इसीलिए गौतमबुद्ध की परंपरा में इस अनुभव को अंतिम दुःस्वप्न कहा जाता है। इसके बाद कोई अनुभव बाकी नहीं रहता।
इन बातों की सामान्यता पर जोर देने के बावजूद यह बातें बहुत महान नजर आती हैं। यह बड़ी भारी समस्या है, लेकिन इसका कोई इलाज भी नहीं है। सीधी सीधी बात यह है कि अगर आप जीवन और जगत के बहुत बड़े प्रश्नों से जूझ रहे हैं तब आपको यह अवस्था अचानक से भयानक आनंद में फेंक देगी। लेकिन अगर आपके प्रश्न छोटे हैं आपकी प्यास कम है तो वही अनुभव और वही पानी आपको कम आनंद देगा। इसीलिए बौद्ध परंपरा मैं यह कहा जाता है कि बुद्ध को जो निर्माण प्राप्त हुआ वैसा किसी को प्राप्त नहीं हुआ। यह सही बात है असल में किसी को भी अनुभव होगा तो वैसा अनुभव किसी दूसरे को दोबारा कभी नहीं होगा।
यह इतना व्यक्तिगत है कि हर एक आदमी को अपने ही ढंग से होता है। एक ही चॉकलेट को दो आदमी जब खाते हैं तो दोनों के अनुभव एक जैसे नहीं हो सकते। एक ही मां के दो बच्चे जब मां की गोद में बैठते हैं तो उन दोनों को मां के प्रेम का जो अनुभव होता है वह भी सौ प्रतिशत एक जैसा नहीं होता। यह अनुभव की सब्जेक्टिविटी का मामला है।
मैं यहां सरल करने की कोशिश कर रहा हूं लेकिन मुझे मालूम है यह जटिल होता जा रहा है।
और सरल करके लिखने की कोशिश करूं तो यही लिख सकता हूं कि जब आप अपनी सांसो को, या शरीर की संवेदना को देखते हुए जब स्थिर हो जाते हैं तब आपने आपको अनुभव को जानते हुए जानते हैं। इस तरह अपने आप को जानते हुए जानना उस अनुभव में जाने की शुरुआत है। जहां तक प्रयास किया जा सकता है वहां तक इतना ही हो सकता है। उसके बाद अपने आपको जानते हुए जानने का यह अभ्यास सांस लेने जैसा ही सहज हो जाता है। उसके बाद एक तटस्थता और स्पष्टता बनी रहती है। यह अनुभव में होता है। लेकिन इस अनुभव से बुद्धि का तर्क का सृजनात्मकता का प्रेम का कैसा व्यवहार निकलेगा इसे कोई नहीं तय कर सकता।
इसीलिए अधिकांश लोग इस अनुभव मे स्थापित होने के बाद भी, एकदम सामान्य जीवन जीते रहते हैं। कुछ लोग इस अनुभव के बाद बहुत कुछ करते हुए नजर आते हैं। यह ऐसा ही है जैसे कि एक गांव में स्कूल में सैकड़ों बच्चे पढ़ते हैं और उनमें से कोई एक ही कवि या चित्रकार इंजीनियर बनता या डॉक्टर या इंजीनियर बनता है। मनुष्य के मन का सर्जनात्मक या क्रियाशील होना एक अलग ही विषय है। उसका इस अनुभव से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हमें यह सिखाया जाता है कि जिसे यह अनुभव होता है वह इतिहास में अमर हो जाता है इत्यादि इत्यादि। यह सब बेकार की बातें हैं।
असल में बात यह है कि मन से सर्जनशील और क्रियाशील लोगों को अगर यह अनुभव हो जाए तब वे वास्तव में इतिहास में अमर हो जाते हैं। लेकिन इस अनुभव से मन या बुद्धि की सृजनशीलता और क्रियाशीलता अनिवार्य रूप से नहीं आती। इसके विपरीत सृजनशीलता और क्रियाशीलता इस अनुभव से अक्सर ही कम हो जाती है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति इस अनुभव में डूबे रहना चाहता है और बाहर नहीं निकलता।
इसीलिए जिन लोगों को समाज में सक्रिय होने की इच्छा होती है उन्हें इस अनुभव से दूर ही रहना चाहिए। इस अनुभव और इन अभ्यासों का कहीं कोई मूल्य नहीं है। आप अपने सामान्य जीवन मे जिस मित्रता प्रेम और भाईचारे का अनुभव करते हैं वे अनुभव ऐसे किसी भी दिव्य अनुभव से कहीं अधिक बड़े होते हैं। जिन लोगों को ये तथाकथित महान अनुभव हो भी जाते हैं वे भी अंतिम रूप से मानवीय प्रेम वात्सल्य और मैत्री के आधार पर ही जीते और सृजनशील रहते हैं।
शेष दो आयामों पर फिर कभी….
Sanjay Shraman –
Sanjay Shraman is a writer, social thinker and scholar. He has done M.A. in Development Studies from IDS University of Sussex UK. He is a Ph.D from Tata Institute of Social Science (TISS), Mumbai.