अखिलेश प्रधान
 ये कहानी सिल्थिंग गांव की है। सिल्थिंग गांव, मुनस्यारी तहसील, जिला पिथौरागढ़, उत्तराखंड के अंतर्गत आता है। यह गांव गोरीपार के ठीक पीछे की पहाड़ी में पड़ता है जहाँ तक जाने के लिए मदकोट से ही गाड़ी चलती है। गोपाल जी भी इसी गांव से हैं, गोपाल 35 वर्ष के हैं, वे जन्म से अंधे हैं। कुदरत ने उनसे आंखों की रोशनी तो छीन ली लेकिन बाकी चीजों का ऐसा अनुकूलन कर दिया कि गोपाल बस एक डंडे के सहारे गांव-गांव नाप लेते हैं। उनकी श्रवणशक्ति गजब की है, वे चीजों को बड़ी तेजी से महसूस कर लेते हैं।
                   सिल्थिंग में हमारे एक पहाड़ी साथी की दीदी का ससुराल है, तो उन्हें भिठौली परंपरा का निर्वाह करने जाना था, तो मैं भी उनकी इस पैदल यात्रा में शामिल हो गया। (भिठौली – अप्रैल महीने में पहाड़ में इस परंपरा में मुख्यतः ब्याही बहन/दीदी के घर राशन, आटा, तेल, खाने पीने की वस्तुएं आदि लेकर परिजनों का प्रस्थान होता है, मुख्यतः घर के पुरुष वर्ग भिठौली परंपरा का निर्वहन करते हैं, इसे भिटौली जाना या भिटौला भी कहा जाता है।)
हम मुनस्यारी से मदकोट मैक्स की गाड़ी में गये‌, फिर वहाँ से हमने चुलकोटधार तक जाने के लिए एक दूसरी मैक्स की गाड़ी पकड़ी और लगभग एक‌ किलोमीटर पैदल चलते हुए सिल्थिंग गाँव पहुंच गये। सिल्थिंग से पंचाचूली की चोटियाँ बहुत ही नजदीक दिखाई देती है, ठीक उतनी ही नजदीक जितनी कि दारमा घाटी से। कुछ गिने चुने गड़रिए बकरियों को लेकर यहाँ से भी पंचाचूली ग्लेशियर तक जाते हैं, लेकिन रास्ता अत्यंत दुर्गम‌ होने के कारण कोई टूरिस्ट यहाँ से नहीं जाता। इसलिए हर कोई पंचाचूली पर्वत को नजदीक से देखने के लिए दारमा घाटी ही जाता है। 
सिल्थिंग गांव की वो पहली सुबह, मैं उठा और पास में स्थित नौले से मुंह धोकर आ रहा था, उसी समय मैंने सबसे पहले गोपाल को देखा, वे ढेर सारी बकरियों और गायों को घास चराने ले जा रहे थे, मेरे दोस्त रूककर उनसे बात कर रहे थे, उस समय मुझे उनके बारे में कुछ भी पता नहीं था। मुझे बाद में मेरे दोस्त ने बताया कि यार आज सुबह जो वो मिले थे न वे पूरी तरह से अंधे हैं। फिर भी उनको इस गांव का और आसपास के गांवों का एक-एक रास्ता पता है।
लेकिन गोपाल इन खतरनाक पहाड़ी रास्तों में ये सब कैसे कर लेते हैं, ऐसी पगडंडियां जहां एक कदम फिसला तो या तो गंभीर चोट लग सकती है या फिर जान का खतरा हो सकता है।
मुझे नहीं पता कि गोपाल अपना दैनिक जीवन का सारा काम कैसे करते होंगे, लेकिन गांव वाले कहते हैं कि वो कभी किसी का सहारा नहीं लेते, उनके दिमाग में पूरा उस पहाड़ी गांव का और साथ ही आसपास के कुछ गांवों का एक मानचित्र सा बन गया है। वो कदम-कदम में चल के बता देते हैं कि यहां पर एक स्कूल है, यहां पेड़ है, यहां अस्तबल है, यहां किराने की दुकान है, दाहिने तरफ खेत है, इधर ये बिजली का खंभा है, उधर नौले, यहां फलां व्यक्ति का घर..वगैरह वगैरह।
                 
दोस्त की दीदी के घर से जब हम अपने अगले पड़ाव के लिए निकले तो जाने से पहले परंपरा अनुसार गुड़ खाया, माथे में टीका लगाया और दोपहर को हम लोगों ने सिल्थिंग गांव से विदा लिया। हमें सात किलोमीटर दूर पगडंडियों से होकर चलते-चलते रिंग्यू गांव जाना था,  रिंग्यू में पोस्ट आफिस की सुविधा है और आइडिया का नेटवर्क भी मिल जाता है। जबकि सिल्थिंग में आपको किसी कंपनी का नेटवर्क नहीं मिलने वाला, बीसीएनएल का नेटवर्क थोड़ा बहुत बिना मल्टीमीडिया वाले छोटे मोबाइल फोन में मिल सकता है। हम जब अपने दोस्त के साथ रिंग्यू के लिए निकले तो हमारे साथ गोपाल भी आ रहे थे। हम जैसे ही उनके पीछे चलने को होते, वे थोड़ा रूकते और कहते कि चलो आगे चलो मैं पीछे-पीछे आ रहा हूं। रास्ते भर मैं पीछे मुड़-मुड़कर गोपाल की चलाई देखता, हल्का सा सिर को टेढ़ा किए हुए एक डंडे के सहारे मस्त चले आ रहे थे। जैसे ही उस पगडंडी वाले रास्ते में उबड़-खाबड़ वाले पत्थर आते गोपाल की स्थिति वहां कुछ ऐसी हो जाती जैसे एक चलती गाड़ी अचानक गड्ढे आने पर हल्की डोलने लगती है।
                      इन गुजरते सालों में निश्चय ही इस दरम्यान गोपाल को चोटें भी आई। कभी पैर छिल गया, मोच आ गई तो कभी कांटे चुभ गये, कभी बिच्छू घास लग गया लेकिन आजतक उन्हें किसी प्रकार की कोई गंभीर चोट नहीं लगी। जब हम रिंग्यू पहुंचने वाले थे तो उससे पहले एक सरकारी स्कूल आता है, स्कूल तक पहुंचने में लगभग 200 मीटर बचा हुआ था, हमने गोपाल को जांचने के लिए झूठ बोला और कहा कि तुम तो कह रहे थे कि स्कूल आएगा तो बता दूंगा लेकिन स्कूल तो हमने पार कर लिया, तुम्हें पता भी नहीं चला। फिर गोपाल सिर हिलाते हुए एक सौम्य सी मुस्कुराहट फेरते हुए बोले कि अरे नहीं अभी नहीं आया होगा, थोड़ा बाकी है शायद अब आएगा स्कूल इधर। और निस्संदेह गोपाल का अनुमान एकदम सटीक था। हम स्कूल के एकदम करीब थे।
                     आगे फिर रिंग्यू गांव जाने के लिए दो रास्ते आए, एक ऊपर की ओर था और एक ढलान की ओर। हम जब ऊपर की ओर जाने लगे तो पीछे-पीछे आ रहे गोपाल रूक से गये और कहने लगे कि शायद नीचे जाना है यहां से, आसपास किसी से पूछना तो। हम तो एक पल के लिए ताज्जुब रह गये। क्योंकि जो नीचे वाला रास्ता जो था वो काफी छोटा था और उसके बारे में मुझे और मेरे दोस्त को कोई जानकारी नहीं थी। गोपाल की वजह से हम एक लंबी दूरी तय करने से बचे। पता नहीं आप यकीन कर पाएंगे पर यूं समझिए कि गोपाल हमारे लिए किसी गाइड के समान थे। रिंग्यू हम पहली बार जा रहे थे, वैसे तो हम पूछताछ करके रिंग्यू तक पहुंच सकते थे लेकिन गोपाल ने हमारी पैदल यात्रा सरल,सुखद एवं आश्चर्य और रोमांच से भरपूर बना दी।
                   गोपाल ने फिर हमें जो बताया उससे जो थोड़ी बहुत शक की गुंजाइश थी वो भी खत्म हो गई। उन्होंने कहा- जब कोई मुझसे पहली बार मिलते हैं वे हमेशा यही सोचते हैं कि मुझे थोड़ा बहुत तो कम से कम दिखता ही होगा। गोपाल जो कह रहे थे तो मेरे मन में भी था कि इन्हें थोड़ा बहुत तो दिखता ही होगा नहीं तो ऐसे कोई कैसे पैदल चल सकता है। लेकिन सच्चाई तो यही है कि वे पूरी तरह से अंधे हैं। गोपाल कहते हैं कि लोग अड़ जाते हैं कि मुझे दिखता होगा लेकिन मैं तो ठहरा जन्म से अंधा, अब इनको कैसे समझाऊँ। जब हमने उनसे पूछा कि वे ये सब कैसे कर लेते हैं तो वे बोले कि मुझे भी नहीं पता, बस आदत हो गई है।
यात्राओं के दौरान अधिकांशतः यह देखने में आता है कि जब कोई समस्या आ जाती है या हम किसी दुविधा में होते हैं तो अचानक ही कोई अनजान‌ मिल जाता है। ऐसे लोग आते हैं मदद करते हैं और फिर अपने रास्ते निकल जाते हैं, बदले में ना कोई ज्यादा बातचीत, न नाम पता पूछना न कुछ। बस अपना एक काम था वो निभा लिया और चलते बने। कभी कभी लगता है कि सचमुच दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं क्या? मन में आता है कि ऐसे लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा की जाए, इनके साथ फोटो ही खिंचवा लिया जाए। लेकिन कभी कभी मनुष्यता का यह बोध यूं होता है कि ऐसी परिस्थिति में न तो इंसान कुछ सोच विचार करता है, न ही वो कैमरे से तस्वीरें खीचनें की सोच पाता है, वो इस भाव को जीने लगता है।
देखा जाए तो ऐसे तमाम लोग जो हमेशा अदृश्य से रहते हैं। इनकी अपनी एक ऊर्जा होती है, खुद की अपनी एक गति होती है, किसी एक मुक्त अणु या इलेक्ट्रान की तरह। उन्हें किसी खास प्रोत्साहन, बढ़ावा, चढ़ावा, समर्थन, सांगठनिक सहयोग या प्रचार की जरूरत नहीं पड़ती। वे सभी लोग अपनी खुद की गति में गतिमान रहते हैं। ये कहीं दिखाई भी नहीं देना चाहते, हमेशा गुमनाम से रहना चाहते हैं, और अपने कर्मपथ में लगे रहते हैं, यही इनकी मूल प्रकृति है। 
                      गोपाल भी तो इन्हीं लोगों में से एक थे। जब हम रिंग्यू गांव के लिए पैदल निकले थे तो समझिए कि कुल जमा दो घंटे हम गोपाल के साथ थे। इस बीच मेरे मन में बार-बार आया कि इनके साथ फोटो खिंचवा लिया जाए, इन्हें तो वैसे भी दिखाई नहीं देता, रिकार्डिंग कर लिया जाए इनका चलना, बातें करना, मुस्कुराना आदि आदि। पर मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर पाया। पता नहीं क्यों किसी चीज ने मुझे रोक लिया। मैंने उनके मूल को नहीं छेड़ा उन्हें जस का तस स्वीकार किया, उनसे आगे आकर उतनी बात भी नहीं की, बस उन्हें बात करने दिया और उनकी बातें सुनता रहा, वो चंद घंटे जो मैं उनके साथ था उसे पूरी तरह से जीने लगा। और फिर मुझे लगा कि गोपाल तो मेरी स्मृति में हमेशा के लिए घर कर गये हैं, इन्हें तो मैं कभी भी आंख मूंदकर याद कर सकता हूं, लिख सकता हूं, देख सकता हूं।

अखिलेश प्रधान   –
Writer, Thinker and First and Foremost a Wanderer