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अकसर इस तरह के ज्ञान खूब पेले जाते है कि सांसदों विधायकों की सुविधाओं, वेतन में कमी होनी चाहिए। जबकि प्रशासनिक अधिकारियों को बड़ा देशभक्त ईमानदार बना के पेश किया जाता रहता है। जबकि सुविधाओं, वेतन और अधिकारों के मामले में ये सांसद, विधायक से ऊपर ही होते है। अपने काम के प्रति प्रशासनिक अधिकारियों की जवाबदेही आज भी न के बराबर ही बनी हुई है। अब एक अपना प्रतिनिधित्व जिसे हमने खुद चुना अगर वह भृष्ट है तब वह प्रशाशनिक अधिकारियों की मदद से लूटमार ही करेगा । लेकिन कोई नेता ईमानदार है,
 तब भी उसे अधिकार नहीं है, प्रशासनिक अधिकारी उसे अपना काम करने नहीं देंगे। दोनों ही मामलों में जनता प्रतिनिधित्व असफल दिखता है। ये जिम्मेदारी, दायित्व सीधे सीधे जनता का है कि वह ईमानदार लोगों को आगे लाये उन्हें चुन कर आगे भेजे, जनता का शासन है तो जनता के प्रतिनिधित्व को ही अधिकार ज्यादा होने चाहिए। नेताओं को गाली देकर हम अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो जाते जो लोकतंत्र में हमे मिली हुई है। लेकिन इसके लिए हमे कम से कम न्यूनतम सामाजिक ईमानदारी, समझ अपने अंदर भी पैदा करनी होगी। अवतारों से मुक्त होना होगा।

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राजनैतिक मुद्दे रोज रोज लॉन्च होने वाले मोबाइल जैसे क्यों हो गए है ! कुछ दिन एक बाजार में रहा फिर दूसरा आ गया। मोबाइल खरीदने में तो फिर भी चुनाव आपके हाथ में होता है, लेकिन राजनैतिक मुद्दे तो चाहे या न चाहे हमारे जीवन को प्रभावित करते चले जाते है।

क्या एक के बाद के एक मुद्दे में फंसने में हम इतना भी नहीं देख सकते की कौन से मुद्दे जीवन को सँवारने के लिए है, कौन से केवल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नुकसान ही करते है , केवल और केवल लगातार मूर्ख बनाने के लिए होते है ?

विश्वगुरु – बच्चा बताओ तुमने क्या सीखा?
विश्वचेला – गुरु सीखने का तो कुछ पता नहीं लेकिन करेंगे वही सब जो आपने किया। आपने धर्म के नाम पर मजे मारे, हम समाजवाद के नाम पर मजे मारेंगे।
विश्वगुरु – लेकिन जनता। वो तो किसी की सगी नहीं है। समझती भी है।
विश्वचेला – गुरु देखिये जनता भी हमारे तुम्हारें जैसी ही है, जनता हमारे जैसी न होती तब हम यहां तक थोड़े न पहुचे होते। धर्म,  राजनीति, समाजवाद, नौकरियां आदि देश सेवा, मनुष्यता के लिए थोड़े न रह गए है। अब तो सब व्यापर हो गया है जिसमे ज्यादा फायदा और आसानी से घुस सकते हो वो क्षेत्र चुन लो बस।
विश्वगुरु – सयाने होते जा रहे हो।
विश्वचेला – हीहीही , अब गुरु आप ही बताइये हमारे जम्बूदीप में ये वाले विकल्प ही कहाँ है की कौन सी राजनैतिक पार्टी की नीतियां ज्यादा अच्छी है, किसका विकास मॉडल ज्यादा अच्छा है। यहां तो ये देखा जाता है की कौन कम बुरा निकले। तासीर तो हम सब की एक सी ही है बस इतना फर्क है कौन किधर से देख रहा है, फ़िलहाल तो हम ही कम बुरे है.

 


आप वैवाहिक संबंधों में जाति को जिये,
आप मित्रता आदि करते हुए भी जाति को जिये,
काम के वर्गीकरण भी जाति के आधार पर ही आज तक चल रहा,
पढाई लिखाई के अधिकार भी जाति के आधार पर,
किस के साथ खाना पीना है किस के साथ नहीं खाना पीना ये भी जाति के आधार पर ,
लगभग हर काम में जाति शामिल और जाति को बढ़ावा देने की सहमति है , पूरा जोर है।

बस आरक्षण और राजनीति में जाति मत घुसाइये , क्यों भई प्रतिनिधित्व में जाति आधारित आरक्षण और जातिगत राजनीति से इतना डरते क्यों हो ! क्या कारण है ?
इन दो जगहों पर जाति आते ही सेना , मुसलमानों, देशभक्ति को क्यों आगे कर देते हो !


मध्यम वर्ग अभी केवल उस स्तर तक पंहुचा है जहाँ उसने सुख सुविधाओं वाले संसाधन जुटा लिए है, कुछ एक संपत्ति जमा कर लिए है। यह सब पिछले 15-20 सालों में तेजी से हुआ। पिछली दों पीढयों को सरकारी नीतियों, आरक्षण, उच्च शिक्षा में स्कॉलरशिप आदि का सीधे लाभ पंहुचा। लेकिन यह सब उतना भी नहीं हुआ है किसी सरकार के 2-4 फैसले आपको उठा के वापिस वही न पटक सके जहाँ से चले थे , भले ही आप कितने भी तिकड़मबाज क्यों न हो।

 


जब जब लगता है ओबीसी वर्ग आगे बढ़ने लगा है , अपने अधिकारों को समझने बूझने लगा है तब तब उसे धार्मिक उन्माद का लॉलीपॉप और जातिय दर्प का झुनझुना दिमाग मंद रखने को पकड़ा दिया जाता है। जब तक राजनैतिक – प्रशासनिक हिस्सेदारी में अपने प्रतिशत के बराबर हक नहीं मांगोगे, प्रतिनिधित्व में स्वयं नहीं उतरोगे तब तक कितने भी अवतार पूजन कर लो सापेक्षता में पीछे ही हटोगे।

 


पहले नेतृत्व थे की सामूहिक चेतना को राजतंत्र से लोकतंत्र की ओर ले गए, लोकतान्त्रिक मूल्यों को निरंतर सुधारों की ओर ले जाते रहे। अगर कोई लोकतांत्रिक चेतना को वापिस व्यक्ति तंत्र की चेतना की ओर मोड़ रहा हो तो वह व्यक्ति या ऐसी कोई संस्था सही कैसे हो सकते है ! खैर ये सवाल खुद से पूछने का ज्यादा है

 

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आर्थिक रूप से भ्रष्ट व्यक्ति भी सामाजिक रूप से बेहद जिम्मेदार और ईमानदार हो सकता है, आर्थिक रूप से ईमानदार व्यक्ति भी समाज को बहुत नुकसान देने वाला और सामाजिक रूप से भ्रष्ट हो सकता है।

 


भारत एक लौकतान्त्रिक देश है , लोकतंत्र का सतही मतलब तो समझते ही होगे मौलिक कर्तव्य , मूल अधिकार आदि . दुनिया के अधिकतर देशो में अलग अलग तरीको से लौकतान्त्रिक शासन पद्धति है , राजशाही , बादशाही काफी पहले ही लोगो द्वारा अस्वीकार कर दी गयी,कम से कम दिखावटी तौर पर तो समाप्त हो ही गयी है . भारत में अभी राष्ट्रीय स्तर की 6 राजनैतिक पार्टिया है , प्रदेश स्तर पर कुल 52 राजनैतिक पार्टिया है . अपनी अपनी मर्जी के हिसाब से अपनी पसंद के नेता, राजनैतिक दल को हर 5 साल में वोट देने का भी 
अधिकार है, 100% बहुमत जैसी चीज लोकतंत्र में होती नहीं है , पांच, दस, पंद्रह सालो में जिधर जनता का बहुमत ज्यादा हो उस हिसाब से सरकारे बनती और जाती रहती है, आप खुद भी चुनाव लड़ सकते है . सब कुछ दुरुस्त तरीके से चलता रहे इसके लिए पक्ष, विपक्ष, सदन, प्रशासनिक व्यवस्था , न्यायपालिका भी मौजूद है . सबका अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है , कहने का मतलब भैये बस इतना है की केवल आप और आपकी विचारधारा आपका नेता या आपका दल ही तो है नहीं बाकी भी है, तो आपकी पसंद की बात न हो तो कृपया काटने मत दौड़ा करो .

 

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हमारी देशभक्ति बड़ी फ्लेक्सिबल है, वर्ल्ड कप में भारत हार जाए तब किसी खिलाडी की गर्लफ्रेंड को गाली देने, खिलाडियों के पुतले फूंकने में भी साबित हो जाती है। सबसे जरुरी हर छह महीने में कभी दंगो में, कभी गौ रक्षण आदि किसी न किसी रूप में साबित होते रहना चाहती है और शिकार हमेशा अपनों में से ही ढूंढ कर करती है।

 

 


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.