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दुनिया कितनी भी अमीर हो जाए हर इंसान की सुख सुविधाएँ जितनी भी बढ़ जाए खेती-किसानी, पानी , पर्यावरण के बिना तब भी काम नहीं चलेगा। हम तुम सबसे महत्वपूर्ण इकाइयों पर बोझ बढ़ाने के अलावा क्या कर रहे है किस काम की रह गई शिक्षा व्यवस्था , टेक्नोलॉजी, मैनेजमेंट, मुद्रा जब इनका प्रयोग किसान मजदूर को लूटने व हमारे उपभोग के लिए ही हुआ, किसान को हमारे उपभोग के लिए उसके जाने अनजाने पूंजीवादी व्यवस्था का नौकर बना दिया। खैर स्थिति तो जरूर बदलनी है, आँखे समय पर न खोली गई तो भयावह रूप से बदलेगी।

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जब तक मुद्रा से मुद्रा बननी बंद नहीं होगी तब तक काला धन रहेगा।
श्रम और उत्पादकता को लाभ के लिए बढ़ाने के लिए लगातार जोर रहेगा
अमीर और गरीब की खाई बढ़ती रहेगी 
शोषक और शोषण दोनों वीभत्स रूप से बढ़ेंगे 
बच्चों को क्रूरतम तरीकों का  मशीनीकृत में ढालना  जारी रहेगा
प्रकृति का दोहन लगातार जारी रहेगा 

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प्राकृतिक संसाधनों, संपत्तियों पर अधिकार भी उनके , मुद्रा पर नियंत्रण भी उनका। अब आप अपने सर्वाइवल के लिए लगातार मुद्रा के बदले उनकेे लिए श्रम, उत्पादन करते रहिए, जो बचे रह जाते है उनके लिए अलग से इलाज चलते ही रहते है।

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मुद्रा लेन देन की तकनीक श्रम, उत्पादन, वस्तुओं आदि के लेन देन के लिए कम बल्कि पजीवियों के लिए ज्यादा लाभदायक है जो इस रद्दी के बदले समानांतर सब कुछ बिना कुछ करे भोग रहे है। मुद्रा के इस जाल की वजह से ही हर कोई उत्पादन, श्रम आदि छोड़, कूद कर दूसरी तरफ पहुँच जाना चाहता है। दोनों का मिक्सचर एक भृष्ट और असंवेदनशील समाज का निर्माण करता है। 


मुद्रा , इकॉनमी के इस दौर में दूध बेचने वाले, पशुओं का व्यापार करने वाले, किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी हर कोई अपराधी है, बताइये एक-एक पैसा कहाँ से आया! कितनी चोरी कर रहे ? 
जीवन क्या है, यह प्रश्न इसके मुकाबले कम कम्प्लिकेटेड लगने लगा है।

 

 

 

 


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.