Nishant Rana 


 

मेरा पहला पुनर्जन्म था
जब मैंने तोड़े थे बंधन बोल के
महीनों की चुप्पी के बाद रोया
था पूरी जान से।
उसके बाद मैं मरता रहा निरन्तर बिना किसी जन्म के
मरता रहा किसी धर्म के नाम पर खुद को बांध कर
कभी जाति के नाम पर बांध कर।
संस्कार, मूल्य जो मेरे नहीं थे वे भी मारते रहे मुझे निरन्तर
मोक्ष, ईश्वर, प्रेम के नाम पर भी जिया मैंने
मरे हुए नामों को।
मेरा दूसरा पुनर्जन्म था
जब मैंने देखा इन सब सड़ांध मार चुकी चीजों को अपने जीवन में।
यह जन्म आसान न रहा वर्षों जमी हुई फंगस रेशे दर रेशे निकलनी थी
डराते हुए
स्व को पार करती हुई।
खुद के खालीपन, भावुकता के छलावों का सामना कब आसान था,
कौन चाहता है खुद को क्रूर कहलाना।
मैंने फिर मृत्यु को जिया,
जब मैंने चाहा खुद को वह बनते देखना जो मैं नहीं था
और अपने उन सब व्यक्तित्व से लड़ना जो मैं था।
मेरा तीसरा पुनर्जन्म था
जब मैंने देखा कि केवल विचार पुनर्जन्म की सिद्धता नहीं है
न ही केवल कर्म।
समझ और कर्म दोनों संग-संग के साथी
एक भ्रम है दूसरे के बिना 
मैंने फिर मृत्यु को जिया
जब मैंने मान लिया कि मेरा हर पुनर्जन्म झूठा था।
मेरा चौथा पुनर्जन्म था
जब मैंने देखा इस मृत्यु में छिपे सच को,
इस पुनर्जन्म में महसूस हुए हर सांस पर होने वाले पुनर्जन्म।
हर पल नए होते सूरज, धूप, धरती।
नए जीवन में सृजित होते पानी, हवा, पत्ते।
याद आया किसी बुद्ध ने कहा था कुछ भी अंतिम सत्य नहीं हैं
इस पुनर्जन्म में जिया मैंने अपने बारम्बार शून्य होने को।


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.