कैद से जब छोड़ी जाती है तितलियां
खो देती है कुछ रंग अपना,
पंखों में भी जो पाये होते है उसने अपने प्राकृतिक संघर्ष से उनमें भी
फिर तारम्यता की जगह आ जाती है छटपटाहटे।
कुछ पंखों के होते हुए भी कैद ही रह जाती है,
कुछ पाती है मुक्त होने में टूटे पंख,
बिंधे पंखों में भूल जाती है वो
फूलों और झाड़ियों का फर्क।
चुन लेती है कांटों को और ज्यादा
बिंधे जाने को
अधिकतर बार तो खो ही देती है पंख अपने।
स्वतंत्रता के छोटे से जीवनकाल में
मरण तो फिर हर तरफ से है,
खुद किसी तरह बच भी जाये
तब फिर एक बहेलिया से दूसरे बहेलिया तक ,
नाना रूपों में छलावों से
आजाद करने के नाम पर
फिर कैद कर ली जाती है तितलियां।


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.