Nishant Rana

आज जिस समाज में हम खड़े है हमारे चारों तरफ भय और हिंसा का माहौल है , किसी भी कीमत पर एक दूसरे को पीछे धकेल कर आगे बढ़ने ही होड़ मची है . हजारों सालों में हिंसा को इतना सूक्ष्म किया है की हमारा दैनिक जीवन जाने अंजाने  बिना किसी का भोग किये , शोषण किये आगे ही नहीं बढता और जब जब इस हिंसा में विस्फोट हुआ है तब तब धरती से जीवन को खत्म करती चली गई. शुरुआत  से  देखते चले तो जीने के ढंग में वैदिक व्यवस्था को सर्वोत्तम मान लिया। वर्ण व्यवस्था ऐसी बनायीं की आज तक मानसिक विकास थमा हुआ। जात पात के नाम पर मनुष्य को मनुष्य न समझा गया , स्त्रियों और शूद्रों को केवल भोगने के लिए ही पैदा होना बता दिया। इतने कड़े नियम बना दिए गए चलना , खाना पीना साँस लेना ही दूभर हो गया।
कुछ लोगों यहां से हटे तो जैनी हो गए मोक्ष के नाम पर शरीर को इतने कष्ट दिए की पूछो मत, अहिंसा के नाम पर इतने कट्टर हो गए की अपने शरीर के साथ की जा रही हिंसा ही न दिखी ।
एक व्यक्ति ने आगे आकर जीवन को समझने के लिए तब के सारे तरीकेे अपनाये जब शरीर को कष्ट देकर , तपस्या कर के, भूखा रह कर भी कुछ न हुआ तब जो सामने है उसे देखते हुए, मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझते हुए बुद्ध ने सभी प्रपंचो की पोल पट्टी खोली। जीवन को समझने समझाने की कोशिश की लेकिन हमने उसका भी क्या किया बुद्ध के बाद उस पर भी झंडा लगा कर धर्म बना दिया। आज सबका जमाल घोटा चल रहा है, वर्तमान दिखता नहीं इतिहास में घुस कर किसी भविष्य के लिये मार काट मचाये पड़े है किसी को ब्राह्मणवादी व्यवस्था लागू करनी है , कोई संगठन हिंदुत्व की रक्षा के लिए लड़ रहा है , किसी को साम्यवाद चाहिए , कुछ को भौतिकवाद चाहिए भले ही इन सब के लिए वर्तमान में कितनी भी हत्याएँ करनी पड़े , भृष्ट होना पड़े, खुद को कष्ट देना पड़े। अपना विकास हुआ नहीं पहले देश सुधार के तरीके दिमाग में भर लिए जाते है भले ही उस कल्पना के परिणाम कितने भी भयानक हो , ऐसे सुधार अंत आते आते में व्यक्तिगत कुंठाओं को तृप्त करने में ही योगदान देते है।
विकास के नाम पर हमनें किस दिन अपना भला किया है, अलग अलग नामों के साथ क्या सब एक जैसे ही नहीं है!
पूर्वजों ने अपने समय के हिसाब से जो ठीक लगा किया जो सुरक्षा , सत्ता , जीवन को समझने के लिए जो रास्ता दिखा अपना लिया, लेकिन हम किस हिसाब से अपने को विकसित बोलते है जैसे माहौल में पैदा हो गए, जैसा सुनते आये वहीं हमारा अंतिम सत्य हो गया भले ही वह कितना वीभत्स हो , वास्तविकता से कितना भी दूर हो बिना जांचे परखे ही अपना लेना उस पर तर्क वितर्क करते रहने ही विकसित होना होता है क्या भले ही पाँच हजार साल पुरानी जाति प्रथा पर ही गर्व क्यों न कर रहे हो । वास्तविकता यहीं है की वाह्य रूप से हम कितना भी आगे निकल आए हो मानसिक रूप से अपवाद व्यक्तित्वों को छोड़ कर हम दो कदम सही से न चले है। आज भौतिक सुखों को इकठ्ठा करने राह पकड़ रखी है लेकिन उम्र निकल जाती है सुख कमाते कमाते लेकिन वो दिन नहीं आता जिस दिन फुर्सत से उन सुखों का भी भोग कर ले , देख ले की इतना सब चाहिए भी था की नहीं, चाहिए भी था तो किस कीमत पर कभी सोचा की रोज एक जैसा जीवन जीने के लिए, धार्मिक, भौतिक उन्मादों में कितनी झीलों, तालाबों, नदियों की हत्या कर दी, कितने जंगल मिटा दिए , कितने जानवर मिटा दिए, युद्धों में कितने इंसान बलि चढ़ चुके। कल्पना कीजिए की खुद के ही जीवन का घेरा कितना सीमित कर चुके। कल्पना कीजिए उस कल की जिसमें ‘सीमेंट के एक घर’ जो कहीं रेगिस्तान में दुनिया की सारी सुविधाएँ लिए बिना पानी , भोजन व अन्य किसी भी प्राकृतिक संपदा के बिना खड़ा है।


Nishant Rana

Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process
of learning and exploring through various ventures
implementing his understanding on social, economical,
educational, rural-journalism and local governance.